Sunday, February 25, 2024

बाद की कुछ कविताएँ


1

धार फूलों की

 

जरूरी नहीं यह कि 

मकती दिखाई दे हथियारों की धार

धार तो कुएं की रस्सी में भी होती है 

जो रेत देती है पत्थर का सीना

 

हवा की चुभन भी

महसूस की होगी सर्दियों में

जब कटने लगती है देह

 

शिकार की हृदय विदारक चिंघाड़ 
चीर देती है जंगल की खामोशी 
हत्यारे की तलवार से कहीं अधिक 
धारदार होती है उसकी चीख

 

कबीर के वचनों की धार से 
अब तक घबराता है संसार

 

और फिर फूलों की धार से तो 
लहूलुहान है हमारी दुनिया।

 

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2

रंगों में रंग

 

माँ के मांडने में

भूरे रंग के कैनवास पर

जो सफ़ेद लकीरें नाचती हैं आदिवासियों की तरह

उत्सव का रंग समाया होता है उनमें

 

खुशी में डूबें हों

तो स्याह भी दिखाई देने लगता है जैसे हल्दी का रंग

पीला पत्ता झरता है सूखे पेड़ से प्रेम में डूबा 

गुलाब की पंखुरी की तरह बिखर जाता है धरती पर

  

हरे में कुछ भी हरा नहीं होता उदास मौसम में 

जैसे फसल का रंग किसान की आँखों में

पाला पड़ने के बाद

 

नीला हुआ समुद्र 

सदियों से धैर्य के गहरे रंग से भरा है शायद

 

और जो सुर्ख बिखरा है यहाँ वहाँ

उपद्रवियों के जश्न के बाद 

आंसूओं के रंग से कितना मिलता है उसका रंग

 

केशरिया में केसर नहीं

हरियाली दिखती नहीं हरे में

सात रंगों का समुच्चय नहीं रहा सफ़ेद

 

न जाने किस रंग में डूबे हुए है सारे रंग 

कि छोड़ते जाते हैं अपना रंग. 

 

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3

संक्रमण काल

वंदना 
करुण गीत में बदल जाती है धीरे धीरे 
भर जाता है आकाश रुदालियों के क्रंदन से 

सलीब पर कौन चढ़ गया
दिखाई नहीं देता आंसुओं के परदे में।

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4

दृश्यांतर

एक गिलहरी मुंडेर पर

कुतरती रही अनार के दाने

 
जरा सी आहट हुई 
तो इठलाती हुई दौड़ गयी पेड़ की डाली पर 
पत्तियों की आड़ में छुपकर 
देखती रही बहुत देर तक मेरी ओर
जैसे दरवाजे की ओट से 
कोई बच्चा देखता है 
दफ्तर से घर लौटे पिता को 

चिड़ियों का एक जोड़ा 
चुगता रहा बाजरा  
सिकोरे के पानी में डुबाई अपनी चोंच
और पंखों से उड़ाई कुछ बूँदें
तो इंद्रधनुष बिखर गया 
सर्दियों की गुनगुनी धूप में

दृश्यांतार तो तब हुआ
जब एक सुकोमल पिल्ला अकस्मात्

चाटने लगा मेरे पंजे को 

यह दुनिया भी  
उसी संसार में है
जिसे छोड़कर आया मैं ड्राइंगरूम में 
बिजली गुल होने के बाद।

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5

जहर पीते हुए

 

पहली घूँट के साथ
मिटने लगती होंगी स्मृतियाँ शायद 
कड़वे समय की

 

गलने लगता होगा 
पुराना संग्रहित कोई दुःख 
औषधि की तरह 
काम करता होगा जहर

 

चिंता नहीं होती जहर पीते हुए
कि खट्टा,कसैला,नमकीन कैसा है उसका स्वाद 
बेस्वाद हुई दुनिया से मुक्ति की तलाश में 
इंद्रियों की चिंता नहीं करता पीने वाला

 

कुछ तो इतने मीठे होते हैं जहर
कि उम्र गुजर जाती है मरते मरते

और जब विश्वासघात 
का पता चलता है अकस्मात
मौक़ा ही नहीं मिलता 
जायका लेने का

 

ठीक ठीक स्वाद पता नहीं इसका अब तक 
किसी दुनियादार को।

 

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6

चाकू

 

हत्या ही नहीं करता किसी की
पेन्सिल की नोंक भी बना लेता है 
चित्रकार चाकू की मदद से

 

कटता है जब तरबूज 
तो मिठास से भर जाती है मरुस्थल की रेत

 

चाकू नहीं होता
तो बढ़ती रहतीं पीड़ा की गांठें
हट नहीं पाता बीमार हिस्सा शरीर से

 

एक चाकू बहुत जरूरी है
दुनिया के खराब हो गए अंगों को 
काट फैंकने के लिए।

 

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7

संत बसंत

 

बसंत
ऋतुओं का संत


मौसम के सितार पर 
थिरकाता अपनी अंगुलियां

 

स्वप्न में डूबी 
जैसे मन्त्र मुग्ध महफ़िल 
जैसे मोहिनी राग में 
झर रहे सुगंध से सने 
निर्मल शब्द

गुनगुनी मदमस्त बयार से 
बेसुध पूरी बगिया

 

झूठ कहते हैं लोग
कि ऋतुओं के सम्राट पधारे हैं

ये शिविर आनन्द का कुछ दिन 
प्रेम लुटाकर लौट जाएगा 
इश्क में डूबा फ़कीर।

 

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8

अनवरत उत्सव 

उत्सव के बाद 
समाप्त नहीं होता उत्सव 

यवनिका पात भर होता है 
थोड़ी देर के लिए 

ढोल नगाडों से मुक्त हो 
कलाकार मिटाते हैं अपनी थकान 
तरोताजा हो जाते हैं रंग इस बीच 

मध्यांतर में क्षणिक 
विश्राम करते हैं अभिनेता 
अल्प विराम के बाद
फिर शुरू होता है महानाट्य 

आनंदोत्सव यह जीवन का 
चलता रहता है खंड-खंड 
अनवरत।

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9

हुसैन की दुनिया में 

बहने लगती थी 
ममत्व की नीली नदी 
करुणा के रंग बिखर जाते
माँ की साड़ी की किनारी में 
कूंची से गुजरते हुए  

आदिवासी की तरह चित्रित अभिनेत्री पर
मुग्ध होते रहे कला पारखी 

देव दैत्य दानव ही नहीं
संत फ़कीर और दुनियादार भी 
चले आते थे उसके कैनवास पर 
ख़ुशी ख़ुशी 

आलाप लेते जब सिद्ध गवैये
सितार बजाते निपुण पंडित 
उस्तादों की जुगलबंदी में निकले सुरों की गूँज  
लांघ जाती सातों समुन्दर

नर्तकी के घुंघरुओं
और महाराज की भाव मुद्राओं से
झूम उठता मन का सभागार  

नवजात को दूध पिलाती
वात्सल्य से भर जाती थी गौ माता 
वीणा बजातीं 
तो कभी शेर पर सवार होकर 
दुष्टों का संहार करती रहीं देवियां 
उसके चित्रों में 

करते  रहे स्पर्श  
उसके नंगे पैर अपनी धरती से 
मिट्टी के रंग से सराबोर थी 
उसकी देशज आत्मा 

घोड़ों में तो जैसे 
जान बसती थी चित्रकार की 
इठलाते छलांग लगाते शक्तिशाली घोड़े  
उल्लास से भरते रहे हमारी दुनिया

और जब बे-वतन हुआ
छलांग गया एक निराश घोडा 
संसार की सारी दूरियां।

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10

मन की रेत पर

ये जो निशान बने हैं ताजे 
कोई गुजरा है अभी 
रेत से होकर 

इंद्रधनुष उड़ा मन के आकाश में    
लहरें पीछा करती लपकीं हमारी ओर   
तो दूर तक बनते गए
स्मृतियों के सुंदर फूल 

लौटते जल से डब-डबाए 
कदमों के निशान
जैसे आंसू खिलखिलाती आँखों में  

फिर गीली होने लगी है रेत
निशानों को भरने लगा है मीठा समुद्र। 

 

 

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11

रिस रहा ठंडा पसीना  इन दिनों 

सूरज माथे पर सवार 
रेत भी है गरम 
दिक्कत बहुत है ताप से 
बेबस हुईं अमराइयाँ 

रिस रहा ठंडा पसीना 
दुःख के आंसू की तरह 
लवण मुक्त हो रहीं  
देह की ये प्यालियाँ 

डर के कदम रख रहा 
आदमी इस आंच में 
फूल मुरझा रहे
धधक रही पगडंडियाँ 

कौओं के सौभाग्य हैं
दिन के दरो दरबार में  
उल्लुओं की रात में  
कोयल सी मीठी बोलियाँ

जो सुंदर थे विचार 
कैद कारागार में
बड़ रही फिरौती रकम
अपहरण की सुपारियाँ

विध्वंस गुम्बदों का हुआ
इतिहास में बहुत 
यों ही नही इन दिनों 
चाणक्य की खामोशियाँ ।


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12

बहुत दिनों के बाद


दरवाजे की कुंडी खड़की 
बहुत दिनों के बाद 
खत दे गया एक डाकिया 
बहुत दिनों के बाद।

मुर्ग मुसल्लम 
ओ बिरयानी खूब हुए
चटनी माँ के हाथों की
बहुत दिनों के बाद।

नेता वेता धरना नारे
जीवन का स्वीकार 
छीतू हरिया खेत से निकले 
बहुत दिनों के बाद।

धूम धड़ाका शोर शराबा 
यहां रोज की बात
सारंगी रोई  महफ़िल में 
बहुत दिनों के बाद।



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13

अनवरत 

पतझर की विदाई के बाद 
बसंत का स्वागत 
बारिश के बाद बीजों का 
हरी बालियों में बदल जाना 
अनवरत चलता रहता है चक्र

 

प्रतीक्षा की थकान से निढाल 
पहली किरण के उजास से 
मुस्कराने लगता दुखी आदमी।

 

दिनमान का अंतिम पुत्र 
लड़ाई के आखिरी दौर में 
जब फड़फड़ाने लगता है 
बारह नए दोस्त सलाम कर
नए संघर्ष का ऐलान करते हैं।

 

शुरुआत और समापन तो 
भ्रम है हमारा
एक मुग्ध नाग नाचता है 
अपनी पूंछ को मुंह मे दबाए

 

उस्तादों के महा प्रस्थान के बाद 
साजिंदे संभाल लेते हैं सितार 
 
झूमते रहते हैं रसिक 
 
रवींद्र के जाने के बाद भी
जारी रहता है उनका संगीत

 

इतना समझ लीजिए
सुर में आया जीवन का कोई अंश 
शिकार नही होता समय का

अंतिम की पूंछ पकड़ 
नव प्रसूत धीरे धीरे 
पैरों पर खड़ा होने लगता है।

 

 

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14

कभी कभी

 

ऐसा होता है कि

बादल घुमड़ते नहीं 
और होने लगती है बारिश

 

पत्ता पत्ता ओस में भीग जाता है भरी दोपहर

 

सुनाई देती है बांसुरी की धुन
खामोश वीराने को भेदते हुए 
नर्तकियों सी थिरकने लगती है डालियां

 

जो चुभते रहे प्रायः 
गुलाब की पंखुड़ियों में बदल 
गुदगुदाने लगते हैं 
लाड़ में आकर

 

पश्चिम से निकल आता है सूरज
प्रेमियों की दुनिया में 
कभी कभी।

 

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15

स्पीड ब्रेकर 


ये गणित भी मजेदार है 
कि निर्बाध यात्रा के लिए 
राजमार्गों पर कम ही बने होते हैं स्पीड ब्रेकर

नहीं होता लेकिन
बस्ती वालों के पास 
बायपास का कोई विकल्प

 

हवा में उड़ने वाले तो
गुजर ही जाते हैं 'उफ' उच्चारते हुए

 

जो पैदल होता है
हाथ पैर तुड़वा लेता है

 

नीतियों के ब्रेकरों से ज्यों 
औंधे मुंह गिर पड़ा गरीब आदमी  
लहू लुहान है हिसाब किताब उसका 
ठोकर खाकर।

 

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16

अलाव 


(
एक)


जश्न में डूबे लोग
उल्लास से झूमते हैं 
अलाव की आंच में 
अपने दुखों को सुखाता है 
निराश आदमी 

मन मे घिरे अंधेरे को
उमंग की रोशनी से 
भरने की कोशिश में
एक अलाव भीतर भी जलाता है।



 

(दो)


जब खुश होते हैं 
उजाले से भर जाते हैं

दुख का घटाटोप 
पूर्णिमा में भी अमावस का 
अंधेरा लेकर आता है

सच तो यह भी है कि
अलाव अक्सर रात में
और चिताएं दिन में सुलगती हैं।


(
तीन)

सुख दुख में अपने 
साथ निभाते हैं 

पानी
हवा
मिट्टी
के साथ
आकाश तले
चिता हो या अलाव 
पांचों पुराने दोस्त नजर आते हैं।

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17

भीतर की उमस 

दुख घनीभूत घिर आया है भीतर
जैसे आकाश में मेघों का डेरा
जरा-सा दबाव कम हो तो
खुशियों की उम्मीद करें हम

ये जो यातना दे रही 
ठहरी हुई उमस
थोड़ी सी तरल बूंदें 
बहा ले जाएगी सारे कष्ट 

मन के भीतर भी
बहुत जरूरी है  
एक झमाझम बारिश।

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18

हरी ऊब 

ऊब की क्यारी में
संवेदनाओं की नमी
और विचार की ऊष्मा पाकर 
हरी दूब उग आई है

कविता के फूल खिलने लगे हैं 
मन के बगीचे में।

 

 


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19

कायर आदमी

 

सबसे आगे खड़ा होकर 
ललकारता है
कि भून डालो उसे
जो हथियार से नहीं
कविता से गोली दागता है

 

सच का सामना 
उसके बस में नहीं होता 
कला के तीरों से बचने के लिए
झूठ के कछुए के पीछे 
दुबक जाता है एनवक्त

 

उसकी खौफजदा हरकतों का आलम देखिए
कि जला दिए जाते हैं थियेटरों के स्क्रीन
प्रदर्शन के काबिल नहीं रह पाते 
रंगकर्मियों के अंग 
पन्ने फाड़ दिए जाते हैं साहित्य और इतिहास के

 

क्रोध के उत्कर्ष में
बेकाबू हो जाती है उसकी आवाज
चीख-चीख कर 
असहमति के स्वरों को 
देश निकाले का फरमान सुनाने लगता है 
कायर आदमी।

 

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20

ऐसी तैसी

वह ऐसा है
वैसा था वह
ऐसी थी उसकी सोच
कैसी थी?

 

वैसी नही थी
जैसी हम सबकी 
ऐसी तैसी करो उसकी

 

की होगी इतिहास में आपने फिरंगियों की 
हम भी कम नहीं ऐसी तैसी करने में

 

पंत की
संत की
नेता की
अभिनेता की
नीति की
रीति की
साहित्य की
इतिहास की 
प्रेम करने वालों तक को 
छोड़ा नहीं हमने

 

खास की
आम की
भाषा की
भूषा की
अब क्या क्या गिनाएं आपको 
कोई तत्व बच नहीं सका हमसे

इसकी उसकी
सबकी ऐसी तैसी की हमने

राष्ट्र नायक भी कोई बचा नहीं इससे
भूतपूर्व की करी 
अभूतपूर्व की भी कुशलता से करते हैं 
ऐसी तैसी

 

गणतंत्र है गण द्वारा 
गण की तो 
रोज ही करते हैं ऐसी तैसी।

 

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21

गिनती 

एक

 

शवों की गिनती करने पर ही

पता चलता है कि
मरने वालों में कितने अबोध थे
और कितने उम्र के आखिरी पड़ाव में
इंतजार कर रहे थे

मुक्ति का

 

संख्या का बड़ा महत्व होता है

हमारे संसार में

दांत गिनकर 
पशुओं की उम्र का 
अनुमान लगाते हैं जानकार
पेड़ की उम्र का रहस्य 
छाल की परतें गिनकर खुलता है

 

प्रकृति के उदार अनुदान की बदौलत 
जारी रहती है

हमारी सारी खटर-पटर 


और एक दिन 
जब गिनती पूरी हो जाती है

खर्च हुई साँसों की
थम जाती है

जीवन यात्रा।

 

 

 

 

 

दो

 

कोई हिसाब नही रखती समष्टि
हमारी तरह 
प्राणवायु की खपत का

 

सच तो यह है कि 
ऑक्सीजन की कीमत
धडकनों की गिनती के
समानुपाती होती है

हमारी दुनिया में

 
जीवन यहां 
बहुत सस्ता है

 

दुनियादारी का 
मौत से नहीं
बाजार से 
सीधा रिश्ता है।

 

 

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22

भ्रम की चमक

 

धूप में चमकती रेत 
स्वर्ण नहीं होती

 

निर्जन रेगिस्तान में
जब पानी चमकता है क्षितिज पर
भीगने लगता है कंठ
व्याकुल प्राणी का

 

सच के सूरज से 
रोशनी चुराकर 
चमकने लगता है 
भ्रम का चांद ।

 

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23

पुनर्विस्थापन

 

पिता के घर से
ससुराल आई थी कभी
अब डूब रहा गांव

 

विस्थापन के आंसुओं को 
किसी बांध में समेट लेना 
आसाँ रहा नहीं कभी ।

 

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24

दृष्टि भेद

 

 



चिंतक की दृष्टि का ही कमाल है कि
पेड़ से गिर कर एक फल 
बता गया दुनिया को
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत  

बीमार दुनिया की 
शल्यक्रिया करते रहे कबीर अपनी बर्छियों से  
सूरदास की तेज नजरों से  
बच नही पाए योगीराज 
माखन चुराते हुए 

अंधेरों में चेतना की रोशनी लेकर आती है 
चिंतक की दृष्टि।

2

एक औरत बैठी 
चरखा चला रही आसमान में 
सदियों से

किसी को दाग दिखता है 
चांद के चेहरे पर 
भूखे की चपाती भी वही 

होगा कोई ग्रह नक्षत्र
हमारी नजर में 
मामा है बच्चों का।



3

नजर में आ जाये सुदामा 
सूबेदार की शान पा लेता है निर्धन

फरिश्तों का पता बता देती है 
सत्ता की वक्र दृष्टि आलोचकों को।


4

प्रेम में डूबी 
बांकी नजरों का क्या कहिए
लहू भी नहीं बिखरता देह से
और ह्रदय बाहर निकलकर 
धड़कने लगते हैं।

 

 

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25

निवेदन  

निवेदन केवल इतना भर है 
कि जब पंछी सूर्योदय के स्वागत में 
गुनगुना रहे हों
तब बंदूक का धमाका न किया जाए
ये हमारे घर से निकलने का वक्त होता है  

दिन चढ़ते ही 
काम शुरू करते हैं 
दुनिया की खुशियों के लिए 

सुख के लिए सबके 
सोचते हैं 
चक्के घुमाते हैं
रोटी के इंतजाम में 
करते हैं खेतों में मेहनत

ध्यान रखें 
कोई खलल न हो समर्पण में 
टूट न जाये हमारी तन्मयता 

इतनी सी गुजारिश है कि 
सांझ ढले
जब अंधेरा घिर आया हो 
तो उसे रात ही माना जाए
ये विश्राम का वक्त होता है हमारा। 

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26

त्यागपत्र

मेड़ पर खड़ा 
बरसों पुराना दोस्त
खुशियों के उत्पादन का साक्षी है

फसल की गन्ध फूटती है उसकी देह से
खेतीहर का पसीना 
भिगोता रहा उसके तन को
घर से आई रोटियों की खुशबू से 
उसने भी पाई है संतुष्टि 
सुख में खूब खिलखिलाईं टहनियाँ
तो पीली हो गईं पत्तियां बुरे समय में    

अचंभित है आज पेड़ 
कि जीवन में आये कम्प से 
इस कदर घबरा जाएगा पुराना साथी
कम होती आवाज धड़कनों की 
सुनता रहा रात भर  
अपनी छाती से लगाए 

मुक्त हो जाने की सूचना देती
लहरा रही है अब निर्जीव देह
त्यागपत्र की तरह 
उदास पीपल के कंधे पर

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27

नीम को देखना 

 

नीम को देखना

देखना नहीं सिर्फ पेड़ को

 

नजर ठहर जाती है यकायक

पत्तियों के बीच से झांकती नन्ही गौरैयों पर 

सुबह का राग जब छेड़ते हैं परिंदे

कोरस के साथ मुस्कुराने लगता है सूरज

 

बूंदों से सजी डाली पर 

मोतियों से दांत चमकते हैं बारिश में चौधरी काका के

कड़वी छाल में घुल जाती है ताऊजी की मीठी बीमारी  

मच्छरों पर उडाये गए धुएं में

पेड़ का अंश भी रहता है उपस्थित

 

वनस्पति से बतियाते 

पेड़ की छाँव में अक्सर दिख जाते हैं

आँखों पर चश्मा चढ़ाए सूर्यवंशी सर

स्मृतियों का क्लोरोफिल

हरा होने लगता है उन्हें देखते हुए   

 

बडे जतन से जमीन खुरच-खुरच

नीम के नीचे बसाया है

घर संसार एक माँ ने

दूध पिलाती है दस बच्चों को 

इत्मीनान से पेड़ के नीचे 

 

अभी-अभी गिरी एक निम्बोली में 

नए अंकुरण को देखा है मैंने 

बूढ़े नीम को देखते हुए.

 

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28

अलार्म की तरह बजता है मौन

 

जो चुप हैं

वे मौन नहीं हैं

विवश ठहराव है उनकी चुप्पी

 

मौन गतिमान है

घड़ी के काँटों की तरह

वक्त आने पर पर डंका बजाकर

सचेत करता हमारी चेतना को

 

यह मत समझिये

कि जो खामोश दिखाई देते हैं अक्सर   

जड़ हो जाते हैं

मौन की साधना में लीन 

अपनी ऊर्जा को किफायत से खर्च करते हैं शायद

 

किसी ख़ास वक्त की सूचना पर

ठीक समय पर

जब अलार्म की तरह बज उठता है यह गतिमान मौन

समय के कान फट जाते हैं

दहल जाता है

सदियों से बहरा हुआ सम्राट. 

 

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29

जरा-सा 

दो चम्मच जावन मिलाने से 
दही बन जाता है कुछ घण्टों में 
चन्द बूंदें नींबू की 
छैने में बदल देती है दूध को

थोड़े से लोग काफी होते हैं 
जीवन काटने के लिए
कुछ विचार खुशबू बिखेर देते हैं दुनिया में 
चन्द चिंगारियां भस्म कर देती हैं खुशियाँ

चुटकी भर से 
जहरीला हो जाता है इतिहास

बात इतनी सी है अंततः 
दिखाई देती है भविष्य की पगडंडी 
जरा सी घास हटते ही।

 

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30

नई सुबह में 

गुस्सा न करो अब 
सूरज प्यारे 
बहुत कर ली मनमानी अब तक

पीले पड़े मुख पर गुलाल मल कर आओगे 
तो केसरिया मुस्कुराने लगेगा 

जाओ तो तुम्हारी मर्जी 
किसने रोका तुम्हे
लाल होने से...!

 

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31

स्थगित कविता 

साथ दे नहीं रहे शब्द
घर आया हूँ अभी
माँ के अनन्त यात्रा पर जाने के बाद 

स्मृतियों के बिछौने पर 
थककर लेटा हूँ
खुली आँखों के सामने स्वप्न में जैसे
माँ बाबूजी 
झिलमिला रहे बे आवाज 

जागी नींद से मुक्त होते ही
शायद लिख सकूं 
कोई भीगी कविता।

 

 

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32

पहचान

वे जानते थे मुझे
जय श्री राम करते 
प्रतिदिन राह चलते

मैं भी बड़ी गर्म जोशी से 
दुआ सलाम का जवाब देता था 
मॉर्निंग वॉक करते हुए 

हमारी जान पहचान जितनी भी 
शायद नहीं थी पहचान
राम जी और 
सलाम साहब की

जब बस्ती में आग लगी
पहचानने से इनकार कर दिया एक दूसरे को
प्रभात फेरी पर निकले 
दो सज्जनों नें।

 

 

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33

निकट की खुशी

भौंरो को खबर है कि
बगिया में बहार आई है
गौरैया खुश है 
अपनी दुनिया में
महक रहा पर्यावरण फूलों की सुगंध से 
सितार के तार छेड़ रही मस्त हवा

सपनों का आकाश भी
छीन लेता है निकट का सुख कभी कभी 
ऊंची उड़ान भर चुके पंछी 
बेखबर हैं आंगन के आनन्द से

चीलों को नहीं
तितलियों को मिलता है बगिया का पता।

 

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34

बाढ़ 

बेराह हुआ पानी 
बहा ले जाता है जन जीवन

विचारों का विचलन 
धराशायी कर देता है हमारी मान्यताएं 

जो पूंजी संचित होती है युगों में 
बाढ़ में बह जाती है हमारी गलतियों से

इक्कीसवीं सदी की बस्ती में
सौलहवीं शताब्दी के अवशेष 
दिखने लगते हैं बाढ़ के बाद।

 

 

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35

बगिया जीवन 

कल जो कलियां देखीं थी
आज फूलों में बदल गईं हैं

खिले फूलों को चुन कर
सजा देता हूँ अपने गुलदस्ते में

फूलों से ही फैली है सुगन्ध आसपास 

बगिया से गुजरता हूँ 
जीवन से गुजरता हूँ।

 

 

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36

अदृश्य है सच 

दृश्य है या 
मरीचिका कोई 

सत्य कैद है रैपर में
इश्तिहार में खिली है झूठ की फुलवारी 

जो खुशबू मोहित कर रही
कागज पर छपे फूलों की स्याही से बिखरी है बेशक

मंदिर के बाहर कंगारू कूड़ेदान पर कुंकु लगाकर 
ताजा गुलाब चढ़ा आया है आदिवासी अभी

अदृश्य ज्ञान 
साक्षरता के आंकड़ों में हो रहा प्रमाणित 

मृग की आंखों में रेगिस्तान की चौंध 
और झील का आभास एक साथ दृश्य में है।

 

 

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37

फाँस

कोई घाव मेरे भीतर 
टीसता रहता 
तुम्हारे दर्द के साथ साथ 

शब्द जो लगा तीर सा 
घायल हुआ 
कभी तुम्हारा दिल

क्षमा के स्नेह और 
पश्चाताप की बूंदों से 
उभर आया है आज पुराना कांटा 
मिट गई है धंसी फाँस की 
सारी पीड़ा।

 

 

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38

वक्त रुकता नहीं

 

जिंदगी के बोझ से

कसमसाता है
आदमी वह जो

दुःख में मुस्कुराता है।

पत्थरों से पट गया है

घर का आंगन
बागीचा एक हरा 

दिल में लहलहाता है।

कांटों से भरी हैं

ये अकड़ती झाड़ियाँ
फल रसीला चुपके से

पिलपिलाता है।

खार से है लबालब

सागर का चेहरा
मोती कोई भीतर से

चमचमाता है।


ठूंठ रह गया

जो पेड़ हरा था कभी
धूल धुसरित बीज

एक अंगड़ाता है।

 

मैं ठहाका लगाता

बिगड़े हालात पर
लूटकर जो भागे हैं

डर उन्हें सताता है।

कल मैं था तख्त पर

आज जो है यहां
वक्त रुकता नही

वह बहुत घबराता है।

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39

उधर सितार बजता है


कोई  है जो धड़कनों को सुनता है।
इधर सारंगी तो उधर सितार बजता है।

जमा किया था जो दुश्मनों में बंट गया
घर  के आगे अब अंधेरा घना रहता है।

लूटने आते हैं दौलत  हमारी  कुछ लोग
संदूक तो उन्ही की खूंटी से बंधा रहता है।

दुःख के समंदर में खार भी कम होता नहीं
दिल में मोहब्बत का मगर नीर भरा रहता है।

सच गलत का फैसला दुधारी पर आ टिका
संदेह का अदृश्य खंजर सीने पे तना रहता है।

खत्म होंगे सारे मसले मुश्किलें कम हो जाएंगी ?
हाकिम तो अक्सर चकाचौंध में फ़ना रहता है।

 

 

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40

एक जंगल  मर गया


व्यंजना है बेअसर

कविता से कागज भर गया।
नष्ट हो गए पेड़  सारे

एक जंगल  मर गया।

पीछे  पड़े जो  कुछ  लफंगे

बुद्धि ओ उस्ताद के
द्रोही कलम घोषित हुई,

विचार निहत्था झर गया।

बांसुरी के वक्त पर 

शंख का उन्माद बेवजह  
आलाप गुम जाने कहाँ,

चीखों से गुम्बद भर गया।  

महामना के पदों पर

रास्ते बनते नहीं 
तोड़ निर्बल का घरौंदा,

राजपथ ये बन गया।

फाड़कर तारीख़ के पन्ने,

भूगोल को बदल रहे
तंत्र में ऐसा मन्त्र फूंका,

विश्वास गण का ढह गया।

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41

मुस्कुराहटें लिखता हूँ

बाग़ से गुजरता हूँ।
मन में रंग भरता हूँ।

 

मौसमों के रूप न्यारे
मैं बहार चुनता हूँ।

बूंद थिरकती धूप में
इंद्रधनुष सा खिलता हूँ।

 

उंगलियाँ घायल हुईं

मैं सितार सुनता हूँ।

 

कल न जाने क्या घटे
आज की मैं कहता हूँ।


बाल मन सा साफ़ कागज़
मुस्कुराहटें लिखता हूँ।

 

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42

नित नई हैं बेड़ियाँ

बोलियों का शोर भारी

रोज के बाजार में।
आत्मा भी बिक गई

इस भरे बाजार में।

देह सजती रही

गुड़ियों की दूकान पर
तैयार हैं संवेदना

बिकने को बाजार में।

वह बेचारा क्या कहे

जिसने खोया अपना घर
विस्थापित खुशियाँ हुईं

लुट गया बाजार में।

बेबसी तो  देखिए

इस महा गणराज्य की
याचना के स्वर दबे

जयकार बहुत बाजार में।

वह तो बस तारीख थी

जब से हम आजाद हैं
नित नई हैं बेड़ियाँ

बेधड़क बाजार में।

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43

तो कोई बात बने

दिल गुलशन में चंपा फूले
तो कोई बात बने।
अंतरतम में एक दिया जले तो
कोई बात बने।

रोशनी उनकी
खस्ता अंधेरों तक आती नहीं
इधर थोड़ा दर्पण घुमाओ
तो कोई बात बने।

सात समंदर सातों धरती
बेशक नाप लिए हों
घर में आओ इस चूल्हे तक
तो कोई बात बने।

षटरस छप्पन पकवानों की
दावत खूब उड़ाई 
टिक्कड़ खाओ संग हमारे
तो कोई बात बने।

भेद न होता रक्त रक्त में
मजहब के आधार पर
हो विश्वास का रंग कौम में
तो कोई बात बने।

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44

पत्तों का गिरना शोर हो गया

सन्नाटा अब

कौन हो गया।
चीख चीख कर

मौन हो गया।

 

सूरज आगे

धुंध का पर्दा
धूप का तेवर

गौण हो गया।

 

सरगम गुम है

शब्द भटकते
ढपली का स्वर

ढोल हो गया।

 

 

आवाजों पे

हाकिम का पहरा
पत्तों का गिरना

शोर हो गया।

 

 

रेखाओं का

गणित जो बिगड़ा
त्रिभुज बदलकर

गोल हो गया।

 

झूठ भरा

रजाई भीतर
मोहक कपड़ा

खोल हो गया।

 

दोस्त पड़ोसी

रिश्ता मीठा
क्यों कर कड़वा

घोल हो गया।

 

दुख के बादल

इस उपवन में
देख तुम्हे

मन मोर हो गया।

 

बाजार भरोसा

खूब सजा
गलत आपका

मोल हो गया।

 

 

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45

ये मौसम

बड़ी गर्मी रही मौसम में

थोड़े दिन पहले।
बेहाल था पसीने से शहर

थोड़े दिन पहले।

 

ओढ़कर मखमली रजाई

निकल रहा सूरज
हौसला कम था हवाओं में

थोड़े दिन पहले।

 

सुर्खियों के तेवर

चढ़ने लगे अखबार में
रोशनाई खो गए थे

शब्द थोड़े दिन पहले।

 

स्वर शब्द थिरकते

देश के इस राग में
मुग्ध रहे इक ढोल पर

थोड़े दिन पहले।

 

बादशाहत का नशा भी

खूब चढ़ता है यहाँ
आज मैं हूँ तख्त पर

दूसरा थोड़े दिन पहले।

 

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46

साया आफ़ताब हुआ है

पक्षी सारे चुप पेड़ों पर

जाने ऐसा क्या हुआ है।
कर्फ्यू सा सन्नाटा पसरा

कुछ ऐसा फरमान हुआ है।

महुए में ये शहद घोलकर

शरबत पिला रहे हैं
सच पर परदेदारी 

शायद कोई अरमान हुआ है।

सतरंगी मेला लगता था 

रंग बिरंगे फूलों का
खुद के ढोरपने से

उपवन ये बरबाद हुआ है।

पछताने से क्या होगा जब

लहू बह रहा पैरों से
जोश होश से कांटे सींचे

साया यों आफ़ताब हुआ है।

फिलवक्त पर पत्ते झरते

लोकतंत्र के पेड़ों से
इंकलाब के नारों से

गुलशन फिर आबाद हुआ है।

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47

नया हो रहा इंडिया 


मन रहा गणतंत्र दिवस,
उत्सव का है रंग।
गण के मन में तंत्र के
रुख से रस में भंग।

मन धतूरा जुबाँ शहद,
एक छुरी मुस्काए।
ढाई आखर प्रेम का,
कब कैसे हो पाए।

चाहे शाही देव को,
छप्पन भोग खिलाय।
खेतिहर की पत्तल में,
काजू नहीं सुहाय।

रंग बिरंगी पोशाख़ें,
बदलूँ दिन में चार।
पहन सूट घोड़ी चढ़े,
छीतू खाए मार।

राज विरोधी बात जब,
देश द्रोह कह लाय।
'
बुद्धिजीवी' तंज बने,
ज्ञान भाड़ में जाय।

दिखता लीडर सामने,
डोर सेठ के हाथ।
नीति नियम वैसे बनें,
देते पूँजी साथ।

 

नया हो रहा इंडिया,
आया ऐसा काल।
हो बात अधिकारों की,
मचता खूब बवाल।  

यथा स्थिति से समझौता,
सुख की यही है कल।
कल की चिंता मत करो,
प्रभु जी निकालें हल।

 

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48

गणतंत्र में


चीजें कुछ मिटती नहीं, जैसे भ्रष्टाचार।
दे दें उसको वैधता, बुरा नहीं विचार।

ध्वनि मत से पारित हो, कानून वही सही।
कोई करे विरोध भी, हम तक पहुंच नही।

चले मिटाने गरीबी, बढ़ गए नव अमीर।
हुआ नहीं लेवल ऊँचा, बदली गई लकीर।

सत्ता भोगिए इस तरह, कूटनीति से आज,
दोष विरोधी पर मढ़ो, हो न सके जब काज।

अपना मत जब कम पड़े, अक्ल लगाएं खूब।
दुर्बल विपक्षी अश्व को, जरा खिलाएं दूब।

ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
जनता हो नाराज यदि, नहीं किसी की खैर।

 

 

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49

क्यों सोए जाते हो 

 

उठो! क्यों इस तरह, सोते जाते हो।

है जीवन बहुत कठिन, रोते जाते हो। 

 

किस तरह वो देखो, काम पर लगा रहता। 

वक्त कम तुम्हारे पास, खोते जाते हो।

 

वह चढ़ गया पहाड़, दुख का, हंसते हंसते।

कांटा क्या चुभा एक, सिसकते जाते हो।

 

लड़ कर आया है वह,जंगली दरिंदों से देखो।

अपनी ही बस्ती में सिर पटकते जाते हो।

 

चीर कर बंजर का सीना, खुशियाँ उगा रहा कोई।

महकते फूल पत्तों को खुद मसलते जाते हो।

 

बहुत से पेट भर जाते,पसीना उसका बहता है।

तुम्हारा खून ही ठंडा, बस बहकते जाते हो। 

 

वे सारे, बहुत सारे, सुंदर बना रहे दुनिया।

नाकारा तुम, मेरे भीतर उतरते जाते हो।

 

 

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50

औसत कविता

 

समूचे श्रेष्ठ और निकृष्ट का औसत निकालो

औसत ही सामने होगा

 

मेरा लिखा औसत में शामिल

मेरी खुशियाँ सारे दुःख औसत हैं

 

केंद्र में होता है औसत

 

शिखर से नीचे देखो तुम श्रेष्ठी

ऊपर उठाओ नजरें मेरे अनुज

मेरी औसत कविता मुस्कुरा उठेगी!

 

 

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51

चाय

 

भक्ति में डूबी मीरा ने

पीया था विष का प्याला कभी

प्याला ही जानता है रहस्य की कितना मधुर है तरल

और कितना जमाने का जहर उतर रहा भीतर

 

अपने दुखों को

चाय की चुस्कियों के साथ हंसते हुए

पी जाते हैं प्रेम में डूबे लोग.

 

 

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52

छद्म

 

मेरे भीतर

एक मैं हूँ

 

निकल आता है कभी कभी भीतर से

और पूछने लगता है कई सवाल

जैसे मैं अपने पिता से

उनके साथ टहलते हुए

अपनी जिज्ञासा व्यक्त करता था हर दिन

मेरे हर सवाल का जवाब होता था उनके पास

 

पिता नहीं हैं अब इस दुनिया में

मेरे सवालों का जवाब मुझे ही देना है अब

पूछने लगता हूँ अपने से ही कुछ प्रश्न

इतनी बदमाशियों,खराबियों के चलते

खुश कैसे रह सकते हैं हम संकटों के साथ?

 

मैं ही दे लेता हूँ जवाब

सवालों को पिटारे में बंद कर

नाचते हैं,गाते हैं जब भीड़ के साथ

भुला देते हैं अपने दुखों को.

 

 

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