Thursday, October 29, 2015

नींव की ईंट

नींव की ईंट

नींव की ईंट जमी है अपनी जगह पर

यह पहला पत्थर है
जिस पर चढती गई मंजिलें
संख्याओं के साथ
बढता गया गौरव का भाव
नींव के कंधों पर

वैभव की रोशनी से जगमाई नहीं कभी उसकी खुरदरी देह

उसे पता ही नहीं चला कभी
कि एक संसार सांस लेता था ऊपर
कुछ सपने थे,कुछ किलकारियाँ गूँजती थी
षडयंत्रों और विकास की
योजनाएँ बनती थीं कुछ मंजिलों में                                            

यह रहस्य है कि
क्यों बिखरा पडा है मलबा
उसके चारों तरफ

बातें करती थी सिर उठाकर आकाश से
धराशायी है आज
क्षत-विक्षत है अट्टालिका का अँग-अँग
जैसे अहंकार किसी सम्राट का

ध्वस्त साम्राज्य की जमीन पर
फिर रखेगा कोई नई इमारत की नई नींव

धरती के ताप और नमी के रोमांच से भरी
दिखाई नही देगी  नींव की ईंट ।


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