Thursday, October 29, 2015

छाँव

कविता
छाँव
ब्रजेश कानूनगो

1

छाँव के बारे में सोंचते ही
ठंडी हवा का झौंका सहला जाता है देह को 
एक कोयल गाने लगती है मन में 
विश्वास से भर उठता है ह्रदय 
कि कोई है जो कष्टों को अपनी पीठ पर रोक लेगा.

कुछ तो बस बने ही इस लिए होते हैं 
कि दूसरों को अपनी शरण में ले सकें 
जैसे गाँव का बूढ़ा पेड़ 
जिसकी छाँव में कभी सुस्ताते रहे पदयात्री 
ढोर भी खेत पर जाते-जाते जुगाली का लुत्फ़ ले लिया करते हैं 
और अब तो बसें भी थोड़ी देर यहीं ठहरने लगीं हैं 
गाड़ी अड्डा बन गई है बरगद की छाँव धीरे धीरे .

कबीर को गुनगुनाते हुए  
खजूर के नीचे नहीं, बरगद की घनी छाँव में 
इस्माइल नें फलों की दूकान सजा रखी है
बहुत विकास किया है गाँव ने
कई परिवार फल फूल रहे हैं छाँव के आसपास

अचानक एक दिन 
बहुत तेज हो जाती है हलचल पेड़ के इर्द गिर्द 
छाँव को फीतों में लपेटते दिखाई देते हैं पटवारी 
छह पटरियों पर प्रगति को दौडाने की तैयारी में बनी है कोई योजना
छाँव का विस्थापन निश्चित है अब 
और आप जानते ही हैं जड़ों से कटकर कब कोई फिर हरा हुआ है
एक छाँव अपने लिए छाँव की तलाश में कातर 
निहार रही है हमारी तरफ.

2

एक छाँव 
तलाश रही है अपने लिए छाँव 
कबीर का इशारा ठीक था 
जब कद ऊंचे होने लगते हैं 
छाँव भी हो जाती है छोटी
और ऊपर उठे तो आकाश में घुल जाती है 
जैसे उड़ते पक्षियों की छाया

यह नया ग्लोबल वार्मिंग ही है 
जिससे बढ़ता गया मनुष्यों का कद

एक छाँव जो माँ थी हमारी 
वृद्धाश्रम की छत के नीचे गुजार रही है अपनी शाम

यह अच्छा है की कुछ पुराने गीत 
छाँव का अहसास अब भी कराते हैं
जिंदगी धूप तुम घना साया 
गाते हुए महसूस करते हैं माँ को
अपने पास.


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
मो.न. 09893044294

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