Friday, October 30, 2015

किताब की आखिरी पंक्ति तक

कविता
किताब की आखिरी पंक्ति तक
ब्रजेश कानूनगो

पुस्तक मेले मे
दिख गए गौरीनाथ के पास बैठे विष्णु नागर
साथ आने को कहा तो स्टाल से उतर कर
तुरंत चले आए मेरे साथ

गौरीनाथ को अभी कुछ और किताबें बेचनी थी
फिर कभी आने का वादा किया और
निपटाने लगे पुस्तक प्रेमियों की भीड़ को    

साथ आने का कहने में संकोच नहीं हुआ मुझे 
रोक नहीं रही थी कोई दिव्यता
बल्कि लगता था कह रहे हों-ले चलो मुझे बाहर
मालवा की हवा में सांस लेना चाहता हूँ थोड़ी देर

वे मेरे साथ हो लिए
बहुत सरल और इतने सहज कि
जब मैंने बताया कल लीलाधर मंडलोई भी आए थे मेरे साथ
तो वे खुश हुए
यह जानकर तो और भी कि
चंद्रकांत देवताले, असगर वजाहत और मंगलेश डबराल के आने के पहले
निराला और मुक्तिबोध भी पिताजी के साथ इसी तरह आ चुके हैं
उनके चश्में से स्नेह और संतोष बरसता नजर आया
मेरे कंधे पर प्रेम से हाथ रख दिया विष्णु नागर ने

शायद स्वभाव नहीं था उनका
फिर भी बताते रहे कि किस तरह जीवन भी कविता हो जाता है
घर पहुँच कर सुनाने लगे घर के बाहर का हाल
बहुत दुखी थे अपने रिश्तेदारों के बारे में बताते हुए
मुम्बई के बम विस्फोट का क़िस्सा सुनाते हुए भीग गईं उनकी आँखें
आश्चर्य तो तब हुआ जब हिटलर के नाम पर उन्हें गुस्सा आया
पर आँगन में लगे पेड़ पर चिड़िया को देखकर बच्चों की तरह खिल पड़े विष्णु नागर  

बाल-बच्चों की खबर लेने-देने का हुआ जरूरी काम
साथ बैठकर खाए हमने दाल बाफले, चौराहे तक गए पान चबाने 
प्रेम के बारे में टुकड़ों–टुकड़ों में करते रहे बात

इस तरह बने रहे विष्णु नागर मेरे साथ किताब की आखिरी पंक्ति तक

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452 018


  
           


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