कविता
तुम लिखो कवि
सुनो कवि ! उठो !
दिन निकल आया है
सुनहरी रश्मियों ने
अन्धकार को जीतना शुरू कर दिया है
सूरज के बच्चे देखो
कैसी क्रीडा कर रहे हैं
उमंग और प्रफुल्लता
से भरे
जैसे देश-देशांतर
में विजय के बाद
सम्राट के सैनिक
उत्सव में डूब जाया करते थे
कहाँ लिए बैठे हो
कविता में आतंरिक लय और ध्वनि का मुद्दा
प्रहसनों के दौर में
किस बिम्ब विधान में उलझे हो तुम
यह सीधे-सीधे उद्घोष
का समय है
विरुदावली, प्रशस्ति
गान पर करो भरोसा
वंदन, अभिनन्दन और
स्वागत की घड़ी में आल्हा छेड़ो कोई
चाहो तो छंदमुक्त के
आग्रह से हो जाओ मुक्त
फिर से रचो दोहा,
सोरठा और चौपाई
यह न हो तो सबसे
सुन्दर है आरती की रचना सार्वकालिक
कुछ लोग तरन्नुम और
तर्ज पर ही बजाते हैं ताली
उन्हें कोई मतलब
नहीं इससे कि
रचते हुए थम गयी
होगी तुम्हारे दिल की धड़कन
शब्दों को नया अर्थ
देकर कैसे सुर में लाए होंगे अपना जीवन
झिझक छोडो, ठीक से
समझो अपना धर्म
कपडे बदल लेने से
नहीं बदलता किसी की आँखों का रंग
देखने का कोण रहता है
जस का तस
वैसा ही बना रहता है
खोपड़ी के भीतर का तंत्र
खतरनाक भी हो जाती
है अधिक खुशी कभी-कभी
उल्लास के उबाल पर
पानी का ठंडा छींटा होती है कविता
व्याकरण और विधान की
चिंता मत करो अब ज्यादा
कलम उठाओ...और लिखना
शुरू करो..और लिखते जाओ कविता....
ब्रजेश कानूनगो
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