Thursday, October 29, 2015

मेरा मुहल्ला

मेरा मुहल्ला

कहाँ गया मेरा मुहल्ला
जो मै छोड़ गया था बीस बरस पहले यहीं कहीं

नहीं दिखाई दे रहा वह नुक्कड़ का हलवाई
रस से भरी मिठाइयाँ दूर दूर तक जाती थी जिसकी
चिढ़ती-झल्लाती जगत बुआजी
जिसके बरामदे में होली पर गंदगी फैंक आया करते थे हुड़दंगी

अंगूठा छाप टेलर मास्टर जिन्हे मैंने
चंद्रकांता संतति पढ़कर सुनाई थी रोज-रोज
अख्तरख़ान जिसे देखकर हम गली में छुप जाते थे इस डर से
कि कहीं वह हमारी किताबें न छीन ले

वह काला और मरियल सा नन्हा शायर
जो मधुर आवाज में गाया करता था फिल्मी गाने
क्रिकेट की गेंद जब्त कर लेने वाली कठोर महिला
जो पहले तो डांटती थी
फिर उढ़ेल देती थी स्नेह का पूरा समुद्र
न जाने कहाँ चले गए हैं सब

वह इमली का पेड़ जो दादी की कहानियों के प्रेत की तरह
हमारी पतंग को पकड़ लिया करता था अक्सर

वह टूटा पुराना ध्वस्त मकान भी दिखाई नही दे रहा
जिसकी सड़ी हुई लकड़ियाँ होली में जलाते रहने से
हमारा चंदा बच जाया करता था-
सिनेमा देखने के लिए





शायद यही है मेरा मुहल्ला लेकिन
उग आया है एक बाजार हमारी गेंद पट्‌टी पर
होली के वृक्ष की स्थापना चिंता की बात हो गई है
टेलर की दुकान में खुल गई है एक नई दुकान
जो अंग्रेजी माध्यम में सिखा रही है त्यौहार मनाना

गर्म जलेबियों की खुशबू नही बिखरती अब नुक्कड पर
नई जमीन के नक्शे पर
सपने बेच रहा है हलवाई का बेटा

धराशायी मकान की भस्म पर खड़ी हो गई है ऊँची इमारत
जिसकी ओट में छिप गया है नीला कैनवास
पतंग के रंगों से बनते थे जिस पर स्मृतियों के अल्हड़ चित्र

वैसा ही हो गया है मेरा मुहल्ला

जैसे कोई कहे-कितना अलग है तुम्हारा छोटा बेटा ।

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