Thursday, October 29, 2015

शुभारंभ

शुभारंभ

अंजानी पीडा के इंतजार में
निहार रहीं थी लगातार
आभूषणों को उजला बनाते सुनार को
दस और बारह बरस के बीच की
दो लड़कियाँ

चिमनी की लौ को
जेवरों की दिशा में फैँकने में व्यस्त सुनार
नहीं देख पा रहा था उनके  चेहरों के रंग
गहनो से अधिक थे जिन पर
कुतुहल और डर के रंग
आ जा रही थी जहाँ
खुशी की मद्धिम चमक बार-बार

अपनी उम्र का जरा सा अधिक
आत्मविश्वास लिए बड़ी लड़की
रख देती थी अपना हाथ
छोटी के माथे पर
थोड़ी-थोड़ी देर में

इशारा होते ही
दोनो हाथों से गालों को थामकर
छोटी लड़की ने
बंद कर ली अपनी आँखें झटपट
चाँदी के बारीक तार से
छेद दिया सुनार ने सहजता से
उसकी नर्म नाक को
झिलमिलानें लगे पारदर्शी मोती आँखों में भी

खिलखिलाती रहीं दोनो लड़कियाँ
जैसे तालियाँ बजाती रहीं हों बहुत देर तक
किसी शुभारंभ पर।

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