Friday, October 30, 2015

तलाशी चौराहा

कविता
तलाशी चौराहा  
ब्रजेश कानूनगो

बच्चों की मुस्कुराहट
खींच लाती है उन्हें 
चौराहे तक
 
कुछ इसलिए भी चले आते हैं काम की तलाश में
कि सूखे पड़े होते है खेत

तलाश तो उनको भी होती है 
जो दिनभर के लिए ले जाते है उन्हें ट्रकों में लादकर 
किसी और की खुशी का इंतजाम करने

यह बहुत अच्छा है कि
तलाशी का रोज का यह नजारा 
गुलामों के बाजार की तरह लगता नहीं हरगिज 

जिसे मंजूर नहीं दिहाड़ी पर उठना 
दिन चढ़ते सायकिल पर निकल पड़ते हैं दुनिया को चमकाने
मौसमी फलों का ठेला जमा लेतें है मुस्कुराते हुए

हौसला चमकता है पेशानी पर उनकी 
जैसे पसीना चमकता है
पदक की तलाश में मैराथन दौड़ते धावक का

जब छंट जाती है चौराहे की भीड़
वे गलियों की ओर निकल पड़ते हैं
घरों के बेकार हुए सामान की गुहार लगाते  
जुटा ही लेते हैं अगले दिन तक की खुशियाँ

भीड़ में नहीं
विकल्प की तलाश में जुटते हैं कुछ लोग.


ब्रजेश कानूनगो

No comments:

Post a Comment