कविता
तलाशी चौराहा
ब्रजेश कानूनगो
बच्चों की मुस्कुराहट
खींच लाती है उन्हें
चौराहे तक
चौराहे तक
कुछ इसलिए भी चले आते हैं काम की तलाश में
कि सूखे पड़े होते है खेत
तलाश तो उनको भी होती है
जो दिनभर के लिए ले जाते है उन्हें ट्रकों में लादकर
किसी और की खुशी का इंतजाम करने
जो दिनभर के लिए ले जाते है उन्हें ट्रकों में लादकर
किसी और की खुशी का इंतजाम करने
यह बहुत अच्छा है कि
तलाशी का रोज का यह नजारा
गुलामों के बाजार की तरह लगता नहीं हरगिज
गुलामों के बाजार की तरह लगता नहीं हरगिज
जिसे मंजूर नहीं दिहाड़ी पर उठना
दिन चढ़ते सायकिल पर निकल पड़ते हैं दुनिया को चमकाने
मौसमी फलों का ठेला जमा लेतें है मुस्कुराते हुए
हौसला चमकता है पेशानी पर उनकी
जैसे पसीना चमकता है
पदक की तलाश में मैराथन दौड़ते धावक का
जैसे पसीना चमकता है
पदक की तलाश में मैराथन दौड़ते धावक का
जब छंट जाती है चौराहे की भीड़
वे गलियों की ओर निकल पड़ते हैं
घरों के बेकार हुए सामान की गुहार लगाते
जुटा ही लेते हैं अगले दिन तक की खुशियाँ
घरों के बेकार हुए सामान की गुहार लगाते
जुटा ही लेते हैं अगले दिन तक की खुशियाँ
भीड़ में नहीं
विकल्प की तलाश में जुटते हैं कुछ लोग.
ब्रजेश कानूनगो
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