Thursday, October 29, 2015

दृश्य


दृश्य


1
एक कुतिया पूरी लय में 
खुरचती रही पेड़ के पास की जमीन
जैसे चिड़िया घोसला बनाती है डाली पर पत्तियों के बीच
जैसे छोटा मौजा बुनती है गुनगुनाते हुए कोई नवेली

और एक सुबह
पेड़ के ऊपर नई चहचहाट के साथ साथ
नीचे भी आबाद हो जाती है छोटी-सी खोह
दुनिया थोड़ी और घनी
कुछ और बड़ी हो जाती है

जब हड्डियां तक बजने लगती है हमारी
घर से निकलना तो दूर की बात है
रजाई से बाहर निकलने में ही छूटता हैं पसीना
पिल्ले बन जाते हैं ऊन के गोले और
ऐसे गुँथ जाते हैं एक दूसरे में कि एकाकार हो जाते हैं
तैयार करते हैं खुद अपना कम्बल
घुसे रहते हैं उसमें सूरज के उगने तक

बच्चों को सर्दी से बचाने के जतन में
कुतिया का जबड़ा रूई का फोहा बन जाता है
निकालती है उन्हें खोह से 
जैसे रजाई खींच कर जगाया जाता है सुबह-सुबह बच्चों को
धूप की सिगड़ी के पास गोटियाँ खेलने लगते हैं पिल्ले 

अपने टुकड़ों का पेट भरने के लिए
टुकड़ों के इंतजाम में गई माँ जब लौटती है तो
ऐसे लपकते हैं पिल्ले 
जैसे टाफियाँ लेकर दफ्तर से लौटे पिता को घेर लेते हैं बच्चे
माँ की छाती से चिपक संसार का सारा सुख
उनके भीतर उतर जाता है
संतोष से भर जाती है एक पृथ्वी.


2
भरी बस में बह रहा है खून 
बर्छियों की तरह चुभ रही है कुछ नजरें
बाहर देखते रहते हैं खिड़की के पास बैठे यात्री
एक मादा को घेरे घूम रहा है कुत्तों का झुंड    

3
सड़क बंद है
बड़ा जाम लगा है
रुक गया है पहियों का घूमना
आक्रोश इतना अधिक है कि 
पैदल भी गुजरने की हिम्मत नहीं किसी में

एक पिल्ला पड़ा है
लहुलुहान बीच सड़क में

लाश के पास 
गुस्से से भरी बैठी है दुखी माँ.




 


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