कागज का झंडा
कागज का तिरंगा
थामे
नारे लगाता नागरिक
नही जानता उस औरत
को
जिसने दिनभर गलियों
में भटकते हुए
जाने कहाँ से कागज
को सहेजा होगा
उस बच्चे को भी वह
नही पहचानता
जिसने केसरिया और
हरे रंग से रंगकर
धूप में सुखाने के
बाद
अपने हिस्से के आटे
की लेई से
बाँस की सींक पर
उसे चिपकाया होगा
झंडा बेचने की
खातिर कडकडाती ठंड में
रातभर राजपथ पर
ठिठुरते पुरुष को भी
वह नही जानता
नहीं जानता वह कि
संवेदनाओं की भारी
लागत से बना
कागज का झंडा
कितने सस्ते में
खरीद लिया गया है।
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