कविता
वाह ! क्या बात है !
ब्रजेश कानूनगो
अद्भुत नजारा है सभागार में
सुरों का साम्राज्य पसरा हुआ है चारों तरफ
गायक की भंगिमाओं के साथ
एक आलाप चल रहा है श्रोताओं के भीतर
तानपुरे की मद्दिम लहरों पर सवार
तबले और आवाज की नावों में होने लगती है जुगलबंदी
तो निहाल हो जाते हैं संगीत यात्री
लम्बी दौड़ के बाद जब सफ़र थमता है तो
अचंभित सैंकड़ों स्वर फूट पड़ते हैं-
वाह-वाह ! क्या बात है !
वाह-वाह के दो शब्द
नई ऊर्जा से भर देते हैं कलाकारों को
और वह एक बैठा है
सभागार में बिलकुल चुपचाप
उठती उतराती तरंगों का
हो नहीं रहा कोई असर
किसी कंपनी के ट्रेड मार्क की तरह
जड़ हो गया है उसका चेहरा
आया है जब महफ़िल में
तो इतना वह जरूर जानता होगा
कि मित्र ही नहीं
शत्रु भी होते हैं तारीफ़ के हकदार
कलाएँ तो फिर दुश्मन भी नहीं रहीं कभी किसी
की
संवेदनाओं के पौधों में प्रशंसा की कलियाँ
खिली नहीं अब तक उसके भीतर
शिकार तो नहीं हो गया है वह
प्रशंसा नहीं करने की किसी कूटनीति का
दोष नहीं उसका इसमें शायद
कि बजा नहीं पा रहा तालियाँ
हो सकता है पहले उसने भी बहुत की हो मेहनत
खूब लिखी हों जीवन की ख़ूबसूरत कविताएँ
और किसी ने बजाई नहीं हो ताली
सुन ही नहीं पाया हो कभी
कि- वाह! क्या बात है !
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,
इंदौर-452018
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