Sunday, November 1, 2015

चीख

कविता
चीख
ब्रजेश कानूनगो  

आप चाहे जितना कहें कि
कविता बहुत लाउड हो गयी है
पर यह चीखने चिल्लाने का दौर है
चीखना इस समय का प्रमुख स्वर है

बिखरी पड़ीं हैं चीखें
जैसे गाँव पर उतर आती है दोपहर की उदासी
जैसे पसरा होता है सागवान के जंगलों में सन्नाटा
संग्रहालयों और स्मारकों के भीतर की शान्ति की तरह
हर कहीं महसूस की जा सकती है चीख की उपस्थिति 

अगर सुन सकें तो जरूर सुनें
चौपाल से निकली गंवई चीख की मद्दिम आवाज
सूखे पत्तों को सहलाती हुई
जंगलों से एक चीख भी बहती हुई
चली आती है हमारे कानों तक

पत्थरों को सुनने के लिए
इतिहासकार या किसी पुरावेत्ता की जरूरत नहीं है अब
दीवारों को भेदते हुई
बाहर तक चली आ रहीं हैं कलाकृतियों की चीखें     

सड़क पर बेसुध पड़ा अकेला आदमी
डरा देने वाली चीख के बाद
चीखता चला जाता है लगातार
चलती कार में से बाहर छिटक गए दुप्पटे
और खँडहर में बिखरी हुई
भीगी रेत की आवाज बिलकुल वैसी है
जैसे किसी तंदूर से निकलती धधकती चीख    


चीखते सवालों के जवाब दिए जा रहे हैं
और अधिक जोर से चीखते हुए
यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है
कि कौन विजेता है चीखने की प्रतियोगिता में
रेफरी को भी स्थगित करना पड़ता है यह खेल
लगभग चीखते हुए

चीखने चिल्लाने के कई मंच सजे हैं
कई संस्थाएं खडी हो गईं हैं
जहाँ काबिल उस्ताद और गुणी पंडित
लोगों को इस कला का अभ्यास कराते नजर आते हैं
सबको कुशल बनाने के लक्ष्य में
चीख को सबसे पहले हाथ में लिया गया है शायद

वहाँ कोई चिल्ला रहा है तो कैसा अचरज
कि यहाँ की आवाज में भी नहीं सुनाई दे रहा कोई संगीत
बहुत स्वाभाविक है यह
कि कविता बहुत चीख रही है इन दिनों.

   

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-452018
मो. न.  09893944294




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