कविता
नीम को देखना
ब्रजेश कानूनगो
नीम को देखना
देखना नहीं सिर्फ पेड़ को
नजर ठहर जाती है यकायक
पत्तियों के बीच से झांकती नन्ही गौरैयों पर
सुबह का राग जब छेड़ते हैं परिंदे
कोरस के साथ मुस्कुराने लगता है सूरज
बूंदों से सजी डाली पर
मोतियों से दांत चमकते हैं बारिश में चौधरी काका
के
कड़वी छाल में घुल जाती है ताऊजी की मीठी बीमारी
मच्छरों पर उडाये गए धुएं में
पेड़ का अंश भी रहता है उपस्थित
वनस्पति से बतियाते
पेड़ की छाँव में अक्सर दिख जाते हैं
आँखों पर चश्मा चढ़ाए सूर्यवंशी सर
स्मृतियों का क्लोरोफिल
हरा होने लगता है उन्हें देखते हुए
बडे जतन से जमीन खुरच-खुरच
नीम के नीचे बसाया है
घर संसार एक माँ ने
दूध पिलाती है दस बच्चों को
इत्मीनान से पेड़ के नीचे
अभी-अभी गिरी एक निम्बोली में
नए अंकुरण को देखा है मैंने
बूढ़े नीम को देखते हुए.
ब्रजेश कानूनगो
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