Sunday, June 5, 2016

नीम को देखना

कविता
नीम को देखना 
ब्रजेश कानूनगो

नीम को देखना
देखना नहीं सिर्फ पेड़ को

नजर ठहर जाती है यकायक
पत्तियों के बीच से झांकती नन्ही गौरैयों पर 
सुबह का राग जब छेड़ते हैं परिंदे
कोरस के साथ मुस्कुराने लगता है सूरज

बूंदों से सजी डाली पर  
मोतियों से दांत चमकते हैं बारिश में चौधरी काका के
कड़वी छाल में घुल जाती है ताऊजी की मीठी बीमारी  
मच्छरों पर उडाये गए धुएं में
पेड़ का अंश भी रहता है उपस्थित

वनस्पति से बतियाते  
पेड़ की छाँव में अक्सर दिख जाते हैं
आँखों पर चश्मा चढ़ाए सूर्यवंशी सर
स्मृतियों का क्लोरोफिल
हरा होने लगता है उन्हें देखते हुए    

बडे जतन से जमीन खुरच-खुरच
नीम के नीचे बसाया है
घर संसार एक माँ ने
दूध पिलाती है दस बच्चों को  
इत्मीनान से पेड़ के नीचे 

अभी-अभी गिरी एक निम्बोली में  
नए अंकुरण को देखा है मैंने  
बूढ़े नीम को देखते हुए.
  

ब्रजेश कानूनगो



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