कविता
जंगली फूल
जंगली फूल
ब्रजेश कानूनगो
गठरी
खोलता हूँ
तो कुछ कविताएँ बिखर जाती हैं
तो कुछ कविताएँ बिखर जाती हैं
जैसे
ओस की बूंदे किसी पत्ते पर
सुबह की खिड़की से बिखरती है
सुबह की खिड़की से बिखरती है
जैसे धूप बिखरती है
सूरज की पोटली के खुलते ही
कुछ
भी नहीं मेरे पास ऐसा
जो गूंजता हो बाहर आकर
जैसे गुल्लक से निकलकर सिक्का खनकता है
जो गूंजता हो बाहर आकर
जैसे गुल्लक से निकलकर सिक्का खनकता है
कोई पदक भी नहीं धातु का
कि वजन और आवाज से आंका जा सके
मेरी कविता का खरापन
इतनी
हलकी है गठरी कि
ज़रा सी भावना के बहते ही थिरकने लगती है
आँसुओं से भीग जाए थोड़ी सी
तो लगता है धरती भीगने लगी हो बारिश में
ज़रा सी भावना के बहते ही थिरकने लगती है
आँसुओं से भीग जाए थोड़ी सी
तो लगता है धरती भीगने लगी हो बारिश में
किस
बात पर इतराऊँ
कोई बीज उड़ के चला आया था आपके आँगन में
घास के साथ खिल गया है एक जंगली फूल।
कोई बीज उड़ के चला आया था आपके आँगन में
घास के साथ खिल गया है एक जंगली फूल।
ब्रजेश कानूनगो
No comments:
Post a Comment