Sunday, October 23, 2016

रंगों में रंग

कविता 
रंगों में रंग
ब्रजेश कानूनगो

माँ के मांडने में 
भूरे रंग के कैनवास पर 
जो सफ़ेद लकीरें नाचती हैं आदिवासियों की तरह 
उत्सव का रंग समाया होता है उनमें

खुशी में डूबें हों 
तो स्याह भी दिखाई देने लगता है जैसे हल्दी का रंग 
पीला पत्ता झरता है सूखे पेड़ से प्रेम में डूबा 
गुलाब की पंखुरी की तरह बिखर जाता है धरती पर

हरे में कुछ भी हरा नहीं होता उदास मौसम में  
जैसे फसल का रंग किसान की आँखों में

पाला पड़ने के बाद
नीला हुआ समुद्र  
सदियों से धैर्य के गहरे रंग से भरा है शायद
और जो सुर्ख बिखरा है यहाँ वहाँ 
उपद्रवियों के जश्न के बाद  
आंसूओं के रंग से कितना मिलता है उसका रंग

केशरिया में केसर नहीं 
हरियाली दिखती नहीं हरे में
सात रंगों का समुच्चय नहीं रहा सफ़ेद
न जाने किस रंग में डूबे हुए है सारे रंग  
कि छोड़ते जाते हैं अपना रंग. 


ब्रजेश कानूनगो

No comments:

Post a Comment