Sunday, October 23, 2016

मरणोपरांत

कविता 
मरणोपरांत 
ब्रजेश कानूनगो

ये विचार ही बड़ा संदिग्ध है 
कि क्या होता होगा जब नहीं रह जाते हम इस दुनिया में

क्या यकीन से कहा जा सकता है 
कि दिखाई दे रहे हैं जो जीवित 
वे भले-चंगे हैं पूरी तरह 
कोई मृत्युबोध नहीं चल रहा उनके साथ
 
और जो अब नहीं हैं हमारे साथ 
क्या कुछ बदल गया उनके मरणोपरांत

भले होते हैं मरने वाले तो याद करते हैं भले लोग 
इस उम्मीद से कि 
याद किया जाएगा उन्हें भी इसी तरह मरणोपरांत

सब कुछ छोड़कर विदा होता है जब कोई खाता पीता 
कुछ प्राणी उदास हो जाते हैं 
कुछ झगड़ने लगते हैं 
टुकड़ों टुकड़ों में बट जाती है मृत्यु

कविता में रोज-रोज मरने वाला कवि भी 
विलीन हो जाता है एक दिन विषयवस्तु में
दौलत को उसकी दान में देकर 
लायब्रेरी की बुक शेल्फ पर 
ज़िंदा रखने की कोशिश करते हैं कवि का नाम 
कुछ दुनियादार बच्चे
पुण्यतिथि पर एक समारोह 
प्रतिष्ठा में उनकी बढ़ोतरी करता रहता है बरसों-बरस

इतना जरूर है 
हमारे किसी कारनामे के लिए दिया गया कोई शौर्य पदक 
बच्चों के किसी काम आ सकता है मरणोपरांत


धड़कने तो सबकी तय हैं जीवन में 
ट्रेक्टर चलाते हुए हरिया भी मरता है 
और बंद गटर में 
राजाराम का दम भी घुट जाता है एक दिन

फसल लहलहाती है फिर भी 
हरिया के बिदा होने के बाद 
गन्दगी बहती रहती है आबादी से दूर 
गुलामअली मुस्तैदी से संभाल लेता है राजाराम का काम

दुःख है कि 
सबके लिए नहीं मनाया जाता कोई राष्ट्रीय शोक
झुकाए नहीं जाते ध्वज 

ये अलग बात है कि 
दो दिन सूरज ने बादलों की काली चादर ओढ ली थी 
और एक कुतिया निर्जीव देह के पास बैठी रही डोली उठने तक
बाबूजी के मरणोपरांत.

ब्रजेश कानूनगो

No comments:

Post a Comment