कविता
जायज नहीं जो
ब्रजेश कानूनगो
पत्थरों की बस्ती बसाने के लिए
मत छीनों हमारे खेत का टुकड़ा
सुर्ख फीते से धड़कनों को बांधना ठीक नहीं
बिलकुल
ये जो लहलहा रही है उम्मीद की हरियाली
पसीनें से सिंचित होकर
शहद की तरह
मिठास से भर देती है हमारी दुनिया
कर सको तो यह करो बेशक
कि आंसुओं को छीन लो
बुलडोजर के रास्ते पर दौड़ा दो
संवेदनाओं की नदी हमारे खेतों तक
बहुत सुन्दर लगते हैं
पहाड़ों की छाँव में
पक्षियों की तरह गाते
पलाश के फूल
तुलसी के गमले में
ठीक नहीं
पैसों का पेड़ उगाना
ये गलत कहावत है कि
प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज होता है
और यह तो कतई नहीं है तुम्हारा प्रेम
जिसके लिए लड़ रहे हैं हम .
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
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