1
धार फूलों की
जरूरी
नहीं यह कि
चमकती दिखाई दे हथियारों की धार
धार तो कुएं की
रस्सी में भी होती है
जो रेत देती है
पत्थर का सीना
हवा की चुभन भी
महसूस की होगी सर्दियों में
जब कटने लगती है
देह
शिकार की हृदय
विदारक चिंघाड़
चीर देती है जंगल
की खामोशी
हत्यारे की तलवार
से कहीं अधिक
धारदार होती है उसकी
चीख
कबीर के वचनों की
धार से
अब तक घबराता है
संसार
और फिर फूलों की
धार से तो
लहूलुहान है हमारी
दुनिया।
0000
2
रंगों में रंग
माँ
के मांडने में
भूरे
रंग के कैनवास पर
जो
सफ़ेद लकीरें नाचती हैं आदिवासियों की तरह
उत्सव
का रंग समाया होता है उनमें
खुशी
में डूबें हों
तो
स्याह भी दिखाई देने लगता है जैसे हल्दी का रंग
पीला
पत्ता झरता है सूखे पेड़ से प्रेम में डूबा
गुलाब
की पंखुरी की तरह बिखर जाता है धरती पर
हरे
में कुछ भी हरा नहीं होता उदास मौसम में
जैसे
फसल का रंग किसान की आँखों में
पाला
पड़ने के बाद
नीला
हुआ समुद्र
सदियों
से धैर्य के गहरे रंग से भरा है शायद
और
जो सुर्ख बिखरा है यहाँ वहाँ
उपद्रवियों
के जश्न के बाद
आंसूओं
के रंग से कितना मिलता है उसका रंग
केशरिया
में केसर नहीं
हरियाली
दिखती नहीं हरे में
सात
रंगों का समुच्चय नहीं रहा सफ़ेद
न
जाने किस रंग में डूबे हुए है सारे रंग
कि
छोड़ते जाते हैं अपना रंग.
0000
3
संक्रमण काल
वंदना
करुण गीत में बदल जाती है धीरे धीरे
भर जाता है आकाश रुदालियों के क्रंदन से
सलीब पर कौन चढ़ गया
दिखाई नहीं देता आंसुओं के परदे में।
0000
4
दृश्यांतर
एक गिलहरी मुंडेर पर
कुतरती रही अनार के दाने
जरा सी आहट हुई
तो इठलाती हुई दौड़ गयी पेड़ की डाली पर
पत्तियों की आड़ में छुपकर
देखती रही बहुत देर तक मेरी ओर
जैसे दरवाजे की ओट से
कोई बच्चा देखता है
दफ्तर से घर लौटे पिता को
चिड़ियों का एक जोड़ा
चुगता रहा बाजरा
सिकोरे के पानी में डुबाई अपनी चोंच
और पंखों से उड़ाई कुछ बूँदें
तो इंद्रधनुष बिखर गया
सर्दियों की गुनगुनी धूप में
दृश्यांतार तो तब हुआ
जब एक सुकोमल पिल्ला अकस्मात्
चाटने लगा मेरे पंजे को
यह दुनिया भी
उसी संसार में है
जिसे छोड़कर आया मैं ड्राइंगरूम में
बिजली गुल होने के बाद।
0000
5
जहर पीते हुए
पहली
घूँट के साथ
मिटने
लगती होंगी स्मृतियाँ शायद
कड़वे समय की
गलने लगता होगा
पुराना संग्रहित
कोई दुःख
औषधि की तरह
काम करता होगा जहर
चिंता नहीं होती
जहर पीते हुए
कि खट्टा,कसैला,नमकीन कैसा है उसका स्वाद
बेस्वाद हुई दुनिया
से मुक्ति की तलाश में
इंद्रियों की चिंता
नहीं करता पीने वाला
कुछ तो इतने मीठे
होते हैं जहर
कि उम्र गुजर जाती
है मरते मरते
और जब विश्वासघात
का पता चलता है अकस्मात
मौक़ा ही नहीं मिलता
जायका लेने का
ठीक ठीक स्वाद पता
नहीं इसका अब तक
किसी दुनियादार को।
0000
6
चाकू
हत्या
ही नहीं करता किसी की
पेन्सिल
की नोंक भी बना लेता है
चित्रकार चाकू की मदद से
कटता है जब तरबूज
तो मिठास से भर
जाती है मरुस्थल की रेत
चाकू नहीं होता
तो बढ़ती रहतीं पीड़ा
की गांठें
हट नहीं पाता बीमार
हिस्सा शरीर से
एक चाकू बहुत जरूरी
है
दुनिया के खराब हो
गए अंगों को
काट फैंकने के लिए।
0000
7
संत बसंत
बसंत
ऋतुओं
का संत
मौसम के सितार पर
थिरकाता अपनी अंगुलियां
स्वप्न में डूबी
जैसे मन्त्र मुग्ध
महफ़िल
जैसे मोहिनी राग
में
झर रहे सुगंध से
सने
निर्मल शब्द
गुनगुनी मदमस्त
बयार से
बेसुध पूरी बगिया
झूठ कहते हैं लोग
कि ऋतुओं के सम्राट
पधारे हैं
ये शिविर आनन्द का
कुछ दिन
प्रेम लुटाकर लौट
जाएगा
इश्क में डूबा
फ़कीर।
0000
8
अनवरत उत्सव
उत्सव के बाद
समाप्त नहीं होता उत्सव
यवनिका पात भर होता है
थोड़ी देर के लिए
ढोल नगाडों से मुक्त हो
कलाकार मिटाते हैं अपनी थकान
तरोताजा हो जाते हैं रंग इस बीच
मध्यांतर में क्षणिक
विश्राम करते हैं अभिनेता
अल्प विराम के बाद
फिर शुरू होता है महानाट्य
आनंदोत्सव यह जीवन का
चलता रहता है खंड-खंड
अनवरत।
0000
9
हुसैन की दुनिया में
बहने लगती थी
ममत्व की नीली नदी
करुणा के रंग बिखर जाते
माँ की साड़ी की किनारी में
कूंची से गुजरते हुए
आदिवासी की तरह चित्रित अभिनेत्री पर
मुग्ध होते रहे कला पारखी
देव दैत्य दानव ही नहीं
संत फ़कीर और दुनियादार भी
चले आते थे उसके कैनवास पर
ख़ुशी ख़ुशी
आलाप लेते जब सिद्ध गवैये
सितार बजाते निपुण पंडित
उस्तादों की जुगलबंदी में निकले सुरों की गूँज
लांघ जाती सातों समुन्दर
नर्तकी के घुंघरुओं
और महाराज की भाव मुद्राओं से
झूम उठता मन का सभागार
नवजात को दूध पिलाती
वात्सल्य से भर जाती थी गौ माता
वीणा बजातीं
तो कभी शेर पर सवार होकर
दुष्टों का संहार करती रहीं देवियां
उसके चित्रों में
करते रहे स्पर्श
उसके नंगे पैर अपनी धरती से
मिट्टी के रंग से सराबोर थी
उसकी देशज आत्मा
घोड़ों में तो जैसे
जान बसती थी चित्रकार की
इठलाते छलांग लगाते शक्तिशाली घोड़े
उल्लास से भरते रहे हमारी दुनिया
और जब बे-वतन हुआ
छलांग गया एक निराश घोडा
संसार की सारी दूरियां।
0000
10
मन की रेत पर
ये
जो निशान बने हैं ताजे
कोई
गुजरा है अभी
रेत
से होकर
इंद्रधनुष
उड़ा मन के आकाश में
लहरें
पीछा करती लपकीं हमारी ओर
तो
दूर तक बनते गए
स्मृतियों
के सुंदर फूल
लौटते
जल से डब-डबाए
कदमों
के निशान
जैसे
आंसू खिलखिलाती आँखों में
फिर
गीली होने लगी है रेत
निशानों
को भरने लगा है मीठा समुद्र।
0000
11
रिस रहा ठंडा पसीना
इन दिनों
सूरज माथे पर सवार
रेत भी है गरम
दिक्कत बहुत है ताप से
बेबस हुईं अमराइयाँ
रिस रहा ठंडा पसीना
दुःख के आंसू की तरह
लवण मुक्त हो रहीं
देह की ये प्यालियाँ
डर के कदम रख रहा
आदमी इस आंच में
फूल मुरझा रहे
धधक रही पगडंडियाँ
कौओं के सौभाग्य हैं
दिन के दरो दरबार में
उल्लुओं की रात में
कोयल सी मीठी बोलियाँ
जो सुंदर थे विचार
कैद कारागार में
बड़ रही फिरौती रकम
अपहरण की सुपारियाँ
विध्वंस गुम्बदों का हुआ
इतिहास में बहुत
यों ही नही इन दिनों
चाणक्य की खामोशियाँ ।
0000
12
बहुत दिनों के बाद
दरवाजे की कुंडी खड़की
बहुत दिनों के बाद
खत दे गया एक डाकिया
बहुत दिनों के बाद।
मुर्ग मुसल्लम
ओ बिरयानी खूब हुए
चटनी माँ के हाथों की
बहुत दिनों के बाद।
नेता वेता धरना नारे
जीवन का स्वीकार
छीतू हरिया खेत से निकले
बहुत दिनों के बाद।
धूम धड़ाका शोर शराबा
यहां रोज की बात
सारंगी रोई महफ़िल में
बहुत दिनों के बाद।
0000
13
अनवरत
पतझर
की विदाई के बाद
बसंत का स्वागत
बारिश के बाद बीजों का
हरी बालियों में बदल जाना
अनवरत चलता रहता है चक्र
प्रतीक्षा की थकान
से निढाल
पहली किरण के उजास
से
मुस्कराने लगता
दुखी आदमी।
दिनमान का अंतिम
पुत्र
लड़ाई के आखिरी दौर
में
जब फड़फड़ाने लगता है
बारह नए दोस्त सलाम
कर
नए संघर्ष का ऐलान
करते हैं।
शुरुआत और समापन तो
भ्रम है हमारा
एक मुग्ध नाग नाचता
है
अपनी पूंछ को मुंह
मे दबाए
उस्तादों के महा
प्रस्थान के बाद
साजिंदे संभाल लेते
हैं सितार
झूमते रहते हैं रसिक
रवींद्र के जाने के बाद भी
जारी रहता है उनका
संगीत
इतना समझ लीजिए
सुर में आया जीवन
का कोई अंश
शिकार नही होता समय
का
अंतिम की पूंछ पकड़
नव प्रसूत धीरे
धीरे
पैरों पर खड़ा होने
लगता है।
0000
14
कभी कभी
ऐसा
होता है कि
बादल
घुमड़ते नहीं
और
होने लगती है बारिश
पत्ता पत्ता ओस में
भीग जाता है भरी दोपहर
सुनाई देती है
बांसुरी की धुन
खामोश वीराने को
भेदते हुए
नर्तकियों सी
थिरकने लगती है डालियां
जो चुभते रहे
प्रायः
गुलाब की पंखुड़ियों
में बदल
गुदगुदाने लगते हैं
लाड़ में आकर
पश्चिम से निकल आता
है सूरज
प्रेमियों की
दुनिया में
कभी कभी।
0000
15
स्पीड ब्रेकर
ये
गणित भी मजेदार है
कि
निर्बाध यात्रा के लिए
राजमार्गों
पर कम ही बने होते हैं स्पीड ब्रेकर
नहीं
होता लेकिन
बस्ती
वालों के पास
बायपास
का कोई विकल्प
हवा
में उड़ने वाले तो
गुजर
ही जाते हैं 'उफ' उच्चारते हुए
जो
पैदल होता है
हाथ
पैर तुड़वा लेता है
नीतियों
के ब्रेकरों से ज्यों
औंधे
मुंह गिर पड़ा गरीब आदमी
लहू
लुहान है हिसाब किताब उसका
ठोकर
खाकर।
0000
16
अलाव
(एक)
जश्न में डूबे लोग
उल्लास से झूमते हैं
अलाव की आंच में
अपने दुखों को सुखाता है
निराश आदमी
मन मे घिरे अंधेरे को
उमंग की रोशनी से
भरने की कोशिश में
एक अलाव भीतर भी जलाता है।
(दो)
जब खुश होते हैं
उजाले से भर जाते हैं
दुख का घटाटोप
पूर्णिमा में भी अमावस का
अंधेरा लेकर आता है
सच तो यह भी है कि
अलाव अक्सर रात में
और चिताएं दिन में सुलगती हैं।
(तीन)
सुख दुख में अपने
साथ निभाते हैं
पानी
हवा
मिट्टी
के साथ
आकाश तले
चिता हो या अलाव
पांचों पुराने दोस्त नजर आते हैं।
0000
17
भीतर की उमस
दुख घनीभूत घिर आया है भीतर
जैसे आकाश में मेघों का डेरा
जरा-सा दबाव कम हो तो
खुशियों की उम्मीद करें हम
ये जो यातना दे रही
ठहरी हुई उमस
थोड़ी सी तरल बूंदें
बहा ले जाएगी सारे कष्ट
मन के भीतर भी
बहुत जरूरी है
एक झमाझम बारिश।
0000
18
हरी ऊब
ऊब की क्यारी में
संवेदनाओं की नमी
और विचार की ऊष्मा पाकर
हरी दूब उग आई है
कविता के फूल खिलने लगे हैं
मन के बगीचे में।
0000
19
कायर आदमी
सबसे
आगे खड़ा होकर
ललकारता
है
कि
भून डालो उसे
जो
हथियार से नहीं
कविता
से गोली दागता है
सच
का सामना
उसके
बस में नहीं होता
कला
के तीरों से बचने के लिए
झूठ
के कछुए के पीछे
दुबक
जाता है एनवक्त
उसकी
खौफजदा हरकतों का आलम देखिए
कि
जला दिए जाते हैं थियेटरों के स्क्रीन
प्रदर्शन
के काबिल नहीं रह पाते
रंगकर्मियों
के अंग
पन्ने
फाड़ दिए जाते हैं साहित्य और इतिहास के
क्रोध
के उत्कर्ष में
बेकाबू
हो जाती है उसकी आवाज
चीख-चीख कर
असहमति
के स्वरों को
देश
निकाले का फरमान सुनाने लगता है
कायर
आदमी।
0000
20
ऐसी तैसी
वह
ऐसा है
वैसा था वह
ऐसी थी उसकी सोच
कैसी थी?
वैसी नही थी
जैसी हम सबकी
ऐसी तैसी करो उसकी
की होगी इतिहास में
आपने फिरंगियों की
हम भी कम नहीं ऐसी
तैसी करने में
पंत की
संत की
नेता की
अभिनेता की
नीति की
रीति की
साहित्य की
इतिहास की
प्रेम करने वालों
तक को
छोड़ा नहीं हमने
खास की
आम की
भाषा की
भूषा की
अब क्या क्या
गिनाएं आपको
कोई तत्व बच नहीं
सका हमसे
इसकी उसकी
सबकी ऐसी तैसी की
हमने
राष्ट्र नायक भी
कोई बचा नहीं इससे
भूतपूर्व की करी
अभूतपूर्व की भी
कुशलता से करते हैं
ऐसी तैसी
गणतंत्र है गण
द्वारा
गण की तो
रोज ही करते हैं
ऐसी तैसी।
0000
21
गिनती
एक
शवों
की गिनती करने पर ही
पता
चलता है कि
मरने
वालों में कितने अबोध थे
और
कितने उम्र के आखिरी पड़ाव में
इंतजार
कर रहे थे
मुक्ति
का
संख्या
का बड़ा महत्व होता है
हमारे
संसार में
दांत
गिनकर
पशुओं
की उम्र का
अनुमान
लगाते हैं जानकार
पेड़
की उम्र का रहस्य
छाल
की परतें गिनकर खुलता है
प्रकृति
के उदार अनुदान की बदौलत
जारी
रहती है
हमारी
सारी खटर-पटर
और
एक दिन
जब
गिनती पूरी हो जाती है
खर्च
हुई साँसों की
थम
जाती है
जीवन
यात्रा।
दो
कोई
हिसाब नही रखती समष्टि
हमारी
तरह
प्राणवायु
की खपत का
सच
तो यह है कि
ऑक्सीजन
की कीमत
धडकनों
की गिनती के
समानुपाती
होती है
हमारी
दुनिया में
जीवन
यहां
बहुत
सस्ता है
दुनियादारी
का
मौत
से नहीं
बाजार
से
सीधा
रिश्ता है।
00000
22
भ्रम की चमक
धूप
में चमकती रेत
स्वर्ण
नहीं होती
निर्जन रेगिस्तान
में
जब पानी चमकता है
क्षितिज पर
भीगने लगता है कंठ
व्याकुल प्राणी का
सच के सूरज से
रोशनी चुराकर
चमकने लगता है
भ्रम का चांद ।
0000
23
पुनर्विस्थापन
पिता
के घर से
ससुराल
आई थी कभी
अब
डूब रहा गांव
विस्थापन
के आंसुओं को
किसी
बांध में समेट लेना
आसाँ
रहा नहीं कभी ।
0000
24
दृष्टि भेद
1
चिंतक की दृष्टि का ही कमाल है कि
पेड़ से गिर कर एक फल
बता गया दुनिया को
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत
बीमार दुनिया की
शल्यक्रिया करते रहे कबीर अपनी बर्छियों से
सूरदास की तेज नजरों से
बच नही पाए योगीराज
माखन चुराते हुए
अंधेरों में चेतना की रोशनी लेकर आती है
चिंतक की दृष्टि।
2
एक औरत बैठी
चरखा चला रही आसमान में
सदियों से
किसी को दाग दिखता है
चांद के चेहरे पर
भूखे की चपाती भी वही
होगा कोई ग्रह नक्षत्र
हमारी नजर में
मामा है बच्चों का।
3
नजर में आ जाये सुदामा
सूबेदार की शान पा लेता है निर्धन
फरिश्तों का पता बता देती है
सत्ता की वक्र दृष्टि आलोचकों को।
4
प्रेम में डूबी
बांकी नजरों का क्या कहिए
लहू भी नहीं बिखरता देह से
और ह्रदय बाहर निकलकर
धड़कने लगते हैं।
0000
25
निवेदन
निवेदन केवल इतना भर है
कि जब पंछी सूर्योदय के स्वागत में
गुनगुना रहे हों
तब बंदूक का धमाका न किया जाए
ये हमारे घर से निकलने का वक्त होता है
दिन चढ़ते ही
काम शुरू करते हैं
दुनिया की खुशियों के लिए
सुख के लिए सबके
सोचते हैं
चक्के घुमाते हैं
रोटी के इंतजाम में
करते हैं खेतों में मेहनत
ध्यान रखें
कोई खलल न हो समर्पण में
टूट न जाये हमारी तन्मयता
इतनी सी गुजारिश है कि
सांझ ढले
जब अंधेरा घिर आया हो
तो उसे रात ही माना जाए
ये विश्राम का वक्त होता है हमारा।
0000
26
त्यागपत्र
मेड़ पर खड़ा
बरसों पुराना दोस्त
खुशियों के उत्पादन का साक्षी है
फसल की गन्ध फूटती है उसकी देह से
खेतीहर का पसीना
भिगोता रहा उसके तन को
घर से आई रोटियों की खुशबू से
उसने भी पाई है संतुष्टि
सुख में खूब खिलखिलाईं टहनियाँ
तो पीली हो गईं पत्तियां बुरे समय में
अचंभित है आज पेड़
कि जीवन में आये कम्प से
इस कदर घबरा जाएगा पुराना साथी
कम होती आवाज धड़कनों की
सुनता रहा रात भर
अपनी छाती से लगाए
मुक्त हो जाने की सूचना देती
लहरा रही है अब निर्जीव देह
त्यागपत्र की तरह
उदास पीपल के कंधे पर ।
0000
27
नीम को देखना
नीम
को देखना
देखना
नहीं सिर्फ पेड़ को
नजर
ठहर जाती है यकायक
पत्तियों
के बीच से झांकती नन्ही गौरैयों पर
सुबह
का राग जब छेड़ते हैं परिंदे
कोरस
के साथ मुस्कुराने लगता है सूरज
बूंदों
से सजी डाली पर
मोतियों
से दांत चमकते हैं बारिश में चौधरी काका के
कड़वी
छाल में घुल जाती है ताऊजी की मीठी बीमारी
मच्छरों
पर उडाये गए धुएं में
पेड़
का अंश भी रहता है उपस्थित
वनस्पति
से बतियाते
पेड़
की छाँव में अक्सर दिख जाते हैं
आँखों
पर चश्मा चढ़ाए सूर्यवंशी सर
स्मृतियों
का क्लोरोफिल
हरा
होने लगता है उन्हें देखते हुए
बडे
जतन से जमीन खुरच-खुरच
नीम
के नीचे बसाया है
घर
संसार एक माँ ने
दूध
पिलाती है दस बच्चों को
इत्मीनान
से पेड़ के नीचे
अभी-अभी गिरी एक निम्बोली में
नए
अंकुरण को देखा है मैंने
बूढ़े
नीम को देखते हुए.
0000
28
अलार्म की तरह बजता है मौन
जो
चुप हैं
वे
मौन नहीं हैं
विवश
ठहराव है उनकी चुप्पी
मौन
गतिमान है
घड़ी
के काँटों की तरह
वक्त
आने पर पर डंका बजाकर
सचेत
करता हमारी चेतना को
यह
मत समझिये
कि
जो खामोश दिखाई देते हैं अक्सर
जड़
हो जाते हैं
मौन
की साधना में लीन
अपनी
ऊर्जा को किफायत से खर्च करते हैं शायद
किसी
ख़ास वक्त की सूचना पर
ठीक
समय पर
जब
अलार्म की तरह बज उठता है यह गतिमान मौन
समय
के कान फट जाते हैं
दहल
जाता है
सदियों
से बहरा हुआ सम्राट.
0000
29
जरा-सा
दो चम्मच जावन मिलाने से
दही बन जाता है कुछ घण्टों में
चन्द बूंदें नींबू की
छैने में बदल देती है दूध को
थोड़े से लोग काफी होते हैं
जीवन काटने के लिए
कुछ विचार खुशबू बिखेर देते हैं दुनिया में
चन्द चिंगारियां भस्म कर देती हैं खुशियाँ
चुटकी भर से
जहरीला हो जाता है इतिहास
बात इतनी सी है अंततः
दिखाई देती है भविष्य की पगडंडी
जरा सी घास हटते ही।
0000
30
नई सुबह में
गुस्सा न करो अब
सूरज प्यारे
बहुत कर ली मनमानी अब तक
पीले पड़े मुख पर गुलाल मल कर आओगे
तो केसरिया मुस्कुराने लगेगा
जाओ तो तुम्हारी मर्जी
किसने रोका तुम्हे
लाल होने से...!
0000
31
स्थगित कविता
साथ दे नहीं रहे शब्द
घर आया हूँ अभी
माँ के अनन्त यात्रा पर जाने के बाद
स्मृतियों के बिछौने पर
थककर लेटा हूँ
खुली आँखों के सामने स्वप्न में जैसे
माँ बाबूजी
झिलमिला रहे बे आवाज
जागी नींद से मुक्त होते ही
शायद लिख सकूं
कोई भीगी कविता।
0000
32
पहचान
वे जानते थे मुझे
जय श्री राम करते
प्रतिदिन राह चलते
मैं भी बड़ी गर्म जोशी से
दुआ सलाम का जवाब देता था
मॉर्निंग वॉक करते हुए
हमारी जान पहचान जितनी भी
शायद नहीं थी पहचान
राम जी और
सलाम साहब की
जब बस्ती में आग लगी
पहचानने से इनकार कर दिया एक दूसरे को
प्रभात फेरी पर निकले
दो सज्जनों नें।
0000
33
निकट की खुशी
भौंरो को खबर है कि
बगिया में बहार आई है
गौरैया खुश है
अपनी दुनिया में
महक रहा पर्यावरण फूलों की सुगंध से
सितार के तार छेड़ रही मस्त हवा
सपनों का आकाश भी
छीन लेता है निकट का सुख कभी कभी
ऊंची उड़ान भर चुके पंछी
बेखबर हैं आंगन के आनन्द से
चीलों को नहीं
तितलियों को मिलता है बगिया का पता।
0000
34
बाढ़
बेराह हुआ पानी
बहा ले जाता है जन जीवन
विचारों का विचलन
धराशायी कर देता है हमारी मान्यताएं
जो पूंजी संचित होती है युगों में
बाढ़ में बह जाती है हमारी गलतियों से
इक्कीसवीं सदी की बस्ती में
सौलहवीं शताब्दी के अवशेष
दिखने लगते हैं बाढ़ के बाद।
0000
35
बगिया जीवन
कल जो कलियां देखीं थी
आज फूलों में बदल गईं हैं
खिले फूलों को चुन कर
सजा देता हूँ अपने गुलदस्ते में
फूलों से ही फैली है सुगन्ध आसपास
बगिया से गुजरता हूँ
जीवन से गुजरता हूँ।
0000
36
अदृश्य है सच
दृश्य है या
मरीचिका कोई
सत्य कैद है रैपर में
इश्तिहार में खिली है झूठ की फुलवारी
जो खुशबू मोहित कर रही
कागज पर छपे फूलों की स्याही से बिखरी है बेशक
मंदिर के बाहर कंगारू कूड़ेदान पर कुंकु लगाकर
ताजा गुलाब चढ़ा आया है आदिवासी अभी
अदृश्य ज्ञान
साक्षरता के आंकड़ों में हो रहा प्रमाणित
मृग की आंखों में रेगिस्तान की चौंध
और झील का आभास एक साथ दृश्य में है।
0000
37
फाँस
कोई घाव मेरे भीतर
टीसता रहता
तुम्हारे दर्द के साथ साथ
शब्द जो लगा तीर सा
घायल हुआ
कभी तुम्हारा दिल
क्षमा के स्नेह और
पश्चाताप की बूंदों से
उभर आया है आज पुराना कांटा
मिट गई है धंसी फाँस की
सारी पीड़ा।
0000
38
वक्त रुकता नहीं
जिंदगी के बोझ से
कसमसाता है
आदमी वह जो
दुःख में मुस्कुराता है।
पत्थरों से पट गया है
घर का आंगन
बागीचा एक हरा
दिल में लहलहाता है।
कांटों से भरी हैं
ये अकड़ती झाड़ियाँ
फल रसीला चुपके से
पिलपिलाता है।
खार से है लबालब
सागर का चेहरा
मोती कोई भीतर से
चमचमाता है।
ठूंठ रह गया
जो पेड़ हरा था कभी
धूल धुसरित बीज
एक अंगड़ाता है।
मैं ठहाका लगाता
बिगड़े हालात पर
लूटकर जो भागे हैं
डर उन्हें सताता है।
कल मैं था तख्त पर
आज जो है यहां
वक्त रुकता नही
वह बहुत घबराता है।
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39
उधर सितार बजता है
कोई है जो धड़कनों को सुनता है।
इधर सारंगी तो उधर सितार बजता है।
जमा किया था जो दुश्मनों में बंट गया
घर के आगे अब अंधेरा घना रहता है।
लूटने आते हैं दौलत हमारी कुछ लोग
संदूक तो उन्ही की खूंटी से बंधा रहता
है।
दुःख के समंदर में खार भी कम होता नहीं
दिल में मोहब्बत का मगर नीर भरा रहता है।
सच गलत का फैसला दुधारी पर आ टिका
संदेह का अदृश्य खंजर सीने पे तना रहता
है।
खत्म होंगे सारे मसले मुश्किलें कम हो
जाएंगी ?
हाकिम तो अक्सर चकाचौंध में फ़ना रहता है।
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40
एक जंगल मर गया
व्यंजना है बेअसर
कविता से कागज भर गया।
नष्ट हो गए पेड़ सारे,
एक जंगल मर गया।
पीछे पड़े जो कुछ लफंगे
बुद्धि ओ उस्ताद के
द्रोही कलम घोषित हुई,
विचार निहत्था झर गया।
बांसुरी के वक्त पर
शंख का उन्माद बेवजह
आलाप गुम जाने कहाँ,
चीखों से गुम्बद भर गया।
महामना के पदों पर
रास्ते बनते नहीं
तोड़ निर्बल का घरौंदा,
राजपथ ये बन गया।
फाड़कर तारीख़ के पन्ने,
भूगोल को बदल रहे
तंत्र में ऐसा मन्त्र फूंका,
विश्वास गण का ढह गया।
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41
मुस्कुराहटें लिखता हूँ
बाग़ से
गुजरता हूँ।
मन
में रंग भरता हूँ।
मौसमों
के रूप न्यारे
मैं
बहार चुनता हूँ।
बूंद
थिरकती धूप में
इंद्रधनुष
सा खिलता हूँ।
उंगलियाँ
घायल हुईं
मैं
सितार सुनता हूँ।
कल
न जाने क्या घटे
आज
की मैं कहता हूँ।
बाल
मन सा साफ़ कागज़
मुस्कुराहटें
लिखता हूँ।
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42
नित नई हैं बेड़ियाँ
बोलियों का शोर भारी
रोज के बाजार में।
आत्मा भी बिक गई
इस भरे बाजार में।
देह सजती रही
गुड़ियों की दूकान पर
तैयार हैं संवेदना
बिकने को बाजार में।
वह बेचारा क्या कहे
जिसने खोया अपना घर
विस्थापित खुशियाँ हुईं
लुट गया बाजार में।
बेबसी तो देखिए
इस महा गणराज्य की
याचना के स्वर दबे
जयकार बहुत बाजार में।
वह तो बस तारीख थी
जब से हम आजाद हैं
नित नई हैं बेड़ियाँ
बेधड़क बाजार में।
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43
तो कोई बात बने
दिल गुलशन में चंपा फूले
तो कोई बात बने।
अंतरतम में एक दिया जले तो
कोई बात बने।
रोशनी उनकी
खस्ता अंधेरों तक आती नहीं
इधर थोड़ा दर्पण घुमाओ
तो कोई बात बने।
सात समंदर सातों धरती
बेशक नाप लिए हों
घर में आओ इस चूल्हे तक
तो कोई बात बने।
षटरस छप्पन पकवानों की
दावत खूब उड़ाई
टिक्कड़ खाओ संग हमारे
तो कोई बात बने।
भेद न होता रक्त रक्त में
मजहब के आधार पर
हो विश्वास का रंग कौम में
तो कोई बात बने।
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44
पत्तों का गिरना शोर हो
गया
सन्नाटा
अब
कौन
हो गया।
चीख चीख कर
मौन हो गया।
सूरज
आगे
धुंध
का पर्दा
धूप
का तेवर
गौण
हो गया।
सरगम
गुम है
शब्द
भटकते
ढपली
का स्वर
ढोल
हो गया।
आवाजों
पे
हाकिम
का पहरा
पत्तों
का गिरना
शोर
हो गया।
रेखाओं
का
गणित
जो बिगड़ा
त्रिभुज
बदलकर
गोल
हो गया।
झूठ
भरा
रजाई
भीतर
मोहक
कपड़ा
खोल
हो गया।
दोस्त
पड़ोसी
रिश्ता
मीठा
क्यों
कर कड़वा
घोल
हो गया।
दुख
के बादल
इस
उपवन में
देख
तुम्हे
मन
मोर हो गया।
बाजार
भरोसा
खूब
सजा
गलत
आपका
मोल
हो गया।
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45
ये मौसम
बड़ी गर्मी रही मौसम में
थोड़े दिन पहले।
बेहाल था पसीने से शहर
थोड़े दिन पहले।
ओढ़कर मखमली रजाई
निकल रहा सूरज
हौसला कम था हवाओं में
थोड़े दिन पहले।
सुर्खियों के तेवर
चढ़ने लगे अखबार में
रोशनाई खो गए थे
शब्द थोड़े दिन पहले।
स्वर शब्द थिरकते
देश के इस राग में
मुग्ध रहे इक ढोल पर
थोड़े दिन पहले।
बादशाहत का नशा भी
खूब चढ़ता है यहाँ
आज मैं हूँ तख्त पर
दूसरा थोड़े दिन पहले।
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46
साया आफ़ताब हुआ है
पक्षी सारे चुप पेड़ों पर
जाने ऐसा क्या हुआ है।
कर्फ्यू सा सन्नाटा पसरा
कुछ ऐसा फरमान हुआ है।
महुए में ये शहद घोलकर
शरबत पिला रहे हैं
सच पर परदेदारी
शायद कोई अरमान हुआ है।
सतरंगी मेला लगता था
रंग बिरंगे फूलों का
खुद के ढोरपने से
उपवन ये बरबाद हुआ है।
पछताने से क्या होगा जब
लहू बह रहा पैरों से
जोश होश से कांटे सींचे
साया यों आफ़ताब हुआ है।
फिलवक्त पर पत्ते झरते
लोकतंत्र के पेड़ों से
इंकलाब के नारों से
गुलशन फिर आबाद हुआ है।
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47
नया हो रहा इंडिया
मन रहा गणतंत्र दिवस,
उत्सव का है रंग।
गण के मन में तंत्र के
रुख से रस में भंग।
मन धतूरा जुबाँ शहद,
एक छुरी मुस्काए।
ढाई आखर प्रेम का,
कब कैसे हो पाए।
चाहे शाही देव को,
छप्पन भोग खिलाय।
खेतिहर की पत्तल में,
काजू नहीं सुहाय।
रंग बिरंगी पोशाख़ें,
बदलूँ दिन में चार।
पहन सूट घोड़ी चढ़े,
छीतू खाए मार।
राज विरोधी बात जब,
देश द्रोह कह लाय।
'बुद्धिजीवी' तंज बने,
ज्ञान भाड़ में जाय।
दिखता लीडर सामने,
डोर सेठ के हाथ।
नीति नियम वैसे बनें,
देते पूँजी साथ।
नया हो रहा इंडिया,
आया ऐसा काल।
हो बात अधिकारों की,
मचता खूब बवाल।
यथा स्थिति से समझौता,
सुख की यही है कल।
कल की चिंता मत करो,
प्रभु जी निकालें हल।
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गणतंत्र
में
चीजें कुछ मिटती नहीं, जैसे भ्रष्टाचार।
दे दें उसको वैधता, बुरा नहीं विचार।
ध्वनि मत से पारित हो, कानून वही सही।
कोई करे विरोध भी, हम तक पहुंच नही।
चले मिटाने गरीबी, बढ़ गए नव अमीर।
हुआ नहीं लेवल ऊँचा, बदली गई लकीर।
सत्ता भोगिए इस तरह, कूटनीति से आज,
दोष विरोधी पर मढ़ो, हो न सके जब काज।
अपना मत जब कम पड़े, अक्ल लगाएं खूब।
दुर्बल विपक्षी अश्व को, जरा खिलाएं दूब।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
जनता हो नाराज यदि, नहीं किसी की खैर।
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क्यों सोए जाते हो
उठो! क्यों इस तरह, सोते जाते हो।
है जीवन बहुत कठिन, रोते जाते हो।
किस तरह वो देखो, काम पर लगा रहता।
वक्त कम तुम्हारे पास, खोते जाते हो।
वह चढ़ गया पहाड़, दुख का, हंसते हंसते।
कांटा क्या चुभा एक, सिसकते जाते हो।
लड़ कर आया है वह,जंगली दरिंदों से देखो।
अपनी ही बस्ती में सिर पटकते जाते हो।
चीर कर बंजर का सीना, खुशियाँ उगा रहा कोई।
महकते फूल पत्तों को खुद मसलते जाते हो।
बहुत से पेट भर जाते,पसीना उसका
बहता है।
तुम्हारा खून ही ठंडा, बस बहकते जाते हो।
वे सारे, बहुत सारे, सुंदर बना रहे दुनिया।
नाकारा तुम, मेरे भीतर उतरते जाते हो।
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औसत कविता
समूचे श्रेष्ठ और निकृष्ट का औसत निकालो
औसत ही सामने होगा
मेरा लिखा औसत में शामिल
मेरी खुशियाँ सारे दुःख औसत हैं
केंद्र में होता है औसत
शिखर से नीचे देखो तुम श्रेष्ठी
ऊपर उठाओ नजरें मेरे अनुज
मेरी औसत कविता मुस्कुरा उठेगी!
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51
चाय
भक्ति
में डूबी मीरा ने
पीया
था विष का प्याला कभी
प्याला
ही जानता है रहस्य की कितना मधुर है तरल
और
कितना जमाने का जहर उतर रहा भीतर
अपने
दुखों को
चाय
की चुस्कियों के साथ हंसते हुए
पी
जाते हैं प्रेम में डूबे लोग.
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छद्म
मेरे
भीतर
एक
मैं हूँ
निकल
आता है कभी कभी भीतर से
और
पूछने लगता है कई सवाल
जैसे
मैं अपने पिता से
उनके
साथ टहलते हुए
अपनी
जिज्ञासा व्यक्त करता था हर दिन
मेरे
हर सवाल का जवाब होता था उनके पास
पिता
नहीं हैं अब इस दुनिया में
मेरे
सवालों का जवाब मुझे ही देना है अब
पूछने
लगता हूँ अपने से ही कुछ प्रश्न
इतनी
बदमाशियों,खराबियों के चलते
खुश
कैसे रह सकते हैं हम संकटों के साथ?
मैं
ही दे लेता हूँ जवाब
सवालों
को पिटारे में बंद कर
नाचते
हैं,गाते हैं जब भीड़ के साथ
भुला
देते हैं अपने दुखों को.
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