कुछ गीतिकाएं
1
वक्त रुकता नहीं
जिंदगी के बोझ से
कसमसाता है
आदमी वह जो
आदमी वह जो
दुःख में मुस्कुराता है।
पत्थरों से पट गया है
पत्थरों से पट गया है
घर का आंगन
बागीचा एक हरा
बागीचा एक हरा
दिल में लहलहाता है।
कांटों से भरी हैं
कांटों से भरी हैं
ये अकड़ती झाड़ियाँ
फल रसीला चुपके से
फल रसीला चुपके से
पिलपिलाता है।
खार से है लबालब
खार से है लबालब
सागर का चेहरा
मोती कोई भीतर से
मोती कोई भीतर से
चमचमाता है।
ठूंठ रह गया
ठूंठ रह गया
जो पेड़ हरा था कभी
धूल धुसरित बीज
धूल धुसरित बीज
एक अंगड़ाता है।
मैं ठहाका लगाता
बिगड़े हालात पर
लूटकर जो भागे हैं
लूटकर जो भागे हैं
डर उन्हें सताता है।
कल मैं था तख्त पर
कल मैं था तख्त पर
आज जो है यहां
वक्त रुकता नही
वक्त रुकता नही
वह बहुत घबराता है।
ब्रजेश कानूनगो
ब्रजेश कानूनगो
2
उधर सितार बजता है
कोई है जो
कोई है जो
धड़कनों को सुनता है।
इधर सारंगी तो
इधर सारंगी तो
उधर सितार बजता है।
जमा किया था जो
जमा किया था जो
दुश्मनों में बंट गया
घर के आगे अब
घर के आगे अब
अंधेरा घना रहता है।
लूटने आते हैं
दौलत हमारी कुछ लोग
संदूक तो उन्ही की
संदूक तो उन्ही की
खूंटी से बंधा रहता है।
दुःख के समंदर में
खार भी कम होता नहीं
दिल में मोहब्बत का मगर
दिल में मोहब्बत का मगर
नीर भरा रहता है।
सच गलत का फैसला
सच गलत का फैसला
दुधारी पर आ टिका
संदेह का अदृश्य खंजर
संदेह का अदृश्य खंजर
सीने पे तना रहता है।
खत्म होंगे सारे मसले
खत्म होंगे सारे मसले
मुश्किलें कम हो जाएंगी ?
हाकिम तो अक्सर
हाकिम तो अक्सर
चकाचौंध में फ़ना रहता है।
3
एक जंगल मर गया
व्यंजना है बेअसर
कविता से कागज भर गया।
नष्ट हो गए पेड़ सारे,
नष्ट हो गए पेड़ सारे,
एक जंगल मर गया।
पीछे पड़े जो कुछ लफंगे
पीछे पड़े जो कुछ लफंगे
बुद्धि ओ उस्ताद के
द्रोही कलम घोषित हुई,
द्रोही कलम घोषित हुई,
विचार निहत्था झर गया।
बांसुरी के वक्त पर
बांसुरी के वक्त पर
शंख का उन्माद बेवजह
आलाप गुम जाने कहाँ,
आलाप गुम जाने कहाँ,
चीखों से गुम्बद भर गया।
महामना के पदों पर
महामना के पदों पर
रास्ते बनते नहीं
तोड़ निर्बल का घरौंदा,
तोड़ निर्बल का घरौंदा,
राजपथ ये बन गया।
फाड़कर तारीख़ के पन्ने,
फाड़कर तारीख़ के पन्ने,
भूगोल को बदल रहे
तंत्र में ऐसा मन्त्र फूंका,
तंत्र में ऐसा मन्त्र फूंका,
विश्वास गण का ढह गया।
ब्रजेश कानूनगो
ब्रजेश कानूनगो
4
मुस्कुराहटें
लिखता हूँ
बाग़ से गुजरता हूँ।
मन में रंग भरता हूँ।
बाग़ से गुजरता हूँ।
मन में रंग भरता हूँ।
मौसमों के रूप न्यारे
मैं बहार चुनता हूँ।
बूंद थिरकती धूप में
इंद्रधनुष सा खिलता हूँ।
मैं बहार चुनता हूँ।
बूंद थिरकती धूप में
इंद्रधनुष सा खिलता हूँ।
उंगलियाँ घायल हुईं
मैं सितार सुनता हूँ।
कल न जाने क्या घटे
आज ही मैं कहता हूँ।
आज ही मैं कहता हूँ।
बाल मन सा साफ़ कागज़
मुस्कुराहटें लिखता हूँ।
ब्रजेश कानूनगो
5
नित नई हैं बेड़ियाँ
बोलियों का शोर भारी
बोलियों का शोर भारी
रोज के बाजार में।
आत्मा भी बिक गई
आत्मा भी बिक गई
इस भरे बाजार में।
देह सजती रही
देह सजती रही
गुड़ियों की दूकान पर
तैयार हैं संवेदना
तैयार हैं संवेदना
बिकने को बाजार में।
वह बेचारा क्या कहे
वह बेचारा क्या कहे
जिसने खोया अपना घर
विस्थापित खुशियाँ हुईं,
विस्थापित खुशियाँ हुईं,
लुट गया बाजार में।
बेबसी तो देखिए
बेबसी तो देखिए
इस महा गणराज्य की
याचना के स्वर दबे,
याचना के स्वर दबे,
जयकार बहुत बाजार में।
वह तो बस तारीख थी
वह तो बस तारीख थी
जब से हम आजाद हैं
नित नई हैं बेड़ियाँ
नित नई हैं बेड़ियाँ
बेधड़क बाजार में।
■ ब्रजेश कानूनगो
■ ब्रजेश कानूनगो
6
तो कोई बात बने
दिल गुलशन में चंपा फूले
तो कोई बात बने।
अंतरतम में एक दिया जले तो
कोई बात बने।
रोशनी उनकी
खस्ता अंधेरों तक आती नहीं
इधर थोड़ा दर्पण घुमाओ
तो कोई बात बने।
सात समंदर सातों धरती
बेशक नाप लिए हों
घर में आओ इस चूल्हे तक
तो कोई बात बने।
षटरस छप्पन पकवानों की
दावत खूब उड़ाई
टिक्कड़ खाओ संग हमारे
तो कोई बात बने।
भेद न होता रक्त रक्त में
मजहब के आधार पर
हो विश्वास का रंग कौम में
तो कोई बात बने।
ब्रजेश कानूनगो
दिल गुलशन में चंपा फूले
तो कोई बात बने।
अंतरतम में एक दिया जले तो
कोई बात बने।
रोशनी उनकी
खस्ता अंधेरों तक आती नहीं
इधर थोड़ा दर्पण घुमाओ
तो कोई बात बने।
सात समंदर सातों धरती
बेशक नाप लिए हों
घर में आओ इस चूल्हे तक
तो कोई बात बने।
षटरस छप्पन पकवानों की
दावत खूब उड़ाई
टिक्कड़ खाओ संग हमारे
तो कोई बात बने।
भेद न होता रक्त रक्त में
मजहब के आधार पर
हो विश्वास का रंग कौम में
तो कोई बात बने।
ब्रजेश कानूनगो
7
पत्तों का गिरना शोर हो गया
सन्नाटा अब
कौन हो गया।
चीख चीख कर
चीख चीख कर
मौन हो गया।
सूरज आगे
धुंध का पर्दा
धूप का तेवर
धूप का तेवर
गौण हो गया।
सरगम गुम है
शब्द भटकते
ढपली का स्वर
ढपली का स्वर
ढोल हो गया।
आवाजों पे
हाकिम का पहरा
पत्तों का गिरना
पत्तों का गिरना
शोर हो गया।
रेखाओं का
गणित जो बिगड़ा
त्रिभुज बदलकर
त्रिभुज बदलकर
गोल हो गया।
झूठ भरा
रजाई भीतर
मोहक कपड़ा
मोहक कपड़ा
खोल हो गया।
दोस्त पड़ोसी
रिश्ता मीठा
क्यों कर कड़वा
क्यों कर कड़वा
घोल हो गया।
दुख के बादल
इस उपवन में
देख तुम्हे
देख तुम्हे
मन मोर हो गया।
बाजार भरोसा
खूब सजा
गलत आपका
गलत आपका
मोल हो गया।
ब्रजेश कानूनगो
8
ये मौसम
बड़ी गर्मी रही मौसम में
थोड़े दिन पहले।
बेहाल था पसीने से शहर
बेहाल था पसीने से शहर
थोड़े दिन पहले।
ओढ़कर मखमली रजाई
निकल रहा सूरज
हौसला कम था हवाओं में
हौसला कम था हवाओं में
थोड़े दिन पहले।
सुर्खियों के तेवर
चढ़ने लगे अखबार में
रोशनाई खो गए थे
रोशनाई खो गए थे
शब्द थोड़े दिन पहले।
स्वर शब्द थिरकते
देश के इस राग में
मुग्ध रहे इक ढोल पर
मुग्ध रहे इक ढोल पर
थोड़े दिन पहले।
बादशाहत का नशा भी
खूब चढ़ता है यहाँ
आज मैं हूँ तख्त पर
आज मैं हूँ तख्त पर
दूसरा थोड़े दिन पहले।
ब्रजेश कानूनगो
9
साया आफ़ताब हुआ है
पक्षी सारे चुप पेड़ों पर
साया आफ़ताब हुआ है
पक्षी सारे चुप पेड़ों पर
जाने ऐसा क्या हुआ है।
कर्फ्यू सा सन्नाटा पसरा
कर्फ्यू सा सन्नाटा पसरा
कुछ ऐसा फरमान हुआ है।
महुए में ये शहद घोलकर
महुए में ये शहद घोलकर
शरबत पिला रहे हैं
सच पर परदेदारी
सच पर परदेदारी
शायद कोई अरमान हुआ है।
सतरंगी मेला लगता था
सतरंगी मेला लगता था
रंग बिरंगे फूलों का
खुद के ढोरपने से
खुद के ढोरपने से
उपवन ये बरबाद हुआ है।
पछताने से क्या होगा जब
पछताने से क्या होगा जब
लहू बह रहा पैरों से
जोश होश से कांटे सींचे
जोश होश से कांटे सींचे
साया यों आफ़ताब हुआ है।
फिलवक्त पर पत्ते झरते
फिलवक्त पर पत्ते झरते
लोकतंत्र के पेड़ों से
इंकलाब के नारों से
इंकलाब के नारों से
गुलशन फिर आबाद हुआ है।
ब्रजेश कानूनगो
ब्रजेश कानूनगो