Saturday, November 14, 2015

तकिया कलाम


कविता
तकिया कलाम
ब्रजेश कानूनगो

बेटी ने पूछा नई कविता का अर्थ
तो करने लगा व्याख्या
लगातार बोलता गया अपनी रौ में दस मिनट तक
मुझे पता ही नहीं था कि पांच सौ किलोमीटर दूर
कोई दर्ज कर रहा है रिकार्डर में
दस्तावेज की तरह  
और जब मोबाइल की लोकप्रिय व्यवस्था से होती हुई
अपनी ही आवाज मुझ तक लौटती है
तो अचरज से भर जाता हूँ सुनकर  


ये जो बारबार आ रहा है ‘मतलब’
इस एक शब्द के आने का क्या मतलब है आखिर
या यों ही आ जाता है बेमतलब
बेमतलब आने का तो अर्थ ही नहीं रहा अब
हारी-बीमारी में भी खबर लेने जाया जाता है 
अब तो किसी मतलब के साथ

उम्र की अर्धायु में जो गुपचुप चला आया यह शब्द  
मेरे बोलने में जो आता है बार बार
जैसे लड्डुओं के बीच इलाइची का दाना
कहीं यह उस तरह तो नहीं आता
जैसे माँ के पास आता था ’आप समझो साब’
या दादी के गुस्से की भाषा में
एक जोरदार ‘हूँ...’ की ध्वनि निकलती थी
या पिता बोलते-बोलते यकायक रुक जाते थे
छोटी-सी खामोशी बन जाती थी उनका तकिया कलाम

सच कहते हैं लोग कि
बड़ी मतलबी हो गई है ये दुनिया
गाँव से शहर और शहर से महानगर तक
मतलब को ही पहुंचा रहीं हैं लारियाँ
बेमतलब नहीं उड़ रहे विमान देश-देशांतर तक
 
सुख-दुःख की नदियों में मतलब बहता है
मतलब के गुब्बारे फोड़े जाते हैं उत्सव में
चाकलेट से मतलब है ज्यादातर बच्चों को
मतलब को कंधे पर लादे सड़क से गुजरता है वृद्ध 

वे ओटले नहीं होते अब आबाद   
बेमतलब की बातों में जहाँ गुजरा करती थी शामें
मतलब का पर्यायवाची हो गयी है मित्रता

तकिया कलाम की तरह बार-बार सुनाई देता है ‘मतलब’  


ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018 





  

  


Sunday, November 1, 2015

छौंक

कविता
छौंक
ब्रजेश कानूनगो  

तुम्हारे सितारे उसके आकाश में टीम-टिमाते हैं
उसकी छत की धूप चली आती है तुम्हारे आँगन में शाम ढले
मेरी छाया खिड़की से गुजर कर
पड़ोसी की तस्वीर से गले मिलती है
अगरबत्ती और लोबान की हर खुशबू से महकता है मुहल्ला

चिड़िया तितली कीट-पतंगे टहलते रहते हैं बे-रोक

ऐसा क्या गजब हो गया
कि रामचरण की बगीची में सलीम की बकरी के घुस आने से
सब्जियों की तरह कट गए लोग

ये कौन-सा छौंक लगाया गया है
कि धुआँ धुआँ सा हो गया है चारों तरफ.


ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018  

 






चीख

कविता
चीख
ब्रजेश कानूनगो  

आप चाहे जितना कहें कि
कविता बहुत लाउड हो गयी है
पर यह चीखने चिल्लाने का दौर है
चीखना इस समय का प्रमुख स्वर है

बिखरी पड़ीं हैं चीखें
जैसे गाँव पर उतर आती है दोपहर की उदासी
जैसे पसरा होता है सागवान के जंगलों में सन्नाटा
संग्रहालयों और स्मारकों के भीतर की शान्ति की तरह
हर कहीं महसूस की जा सकती है चीख की उपस्थिति 

अगर सुन सकें तो जरूर सुनें
चौपाल से निकली गंवई चीख की मद्दिम आवाज
सूखे पत्तों को सहलाती हुई
जंगलों से एक चीख भी बहती हुई
चली आती है हमारे कानों तक

पत्थरों को सुनने के लिए
इतिहासकार या किसी पुरावेत्ता की जरूरत नहीं है अब
दीवारों को भेदते हुई
बाहर तक चली आ रहीं हैं कलाकृतियों की चीखें     

सड़क पर बेसुध पड़ा अकेला आदमी
डरा देने वाली चीख के बाद
चीखता चला जाता है लगातार
चलती कार में से बाहर छिटक गए दुप्पटे
और खँडहर में बिखरी हुई
भीगी रेत की आवाज बिलकुल वैसी है
जैसे किसी तंदूर से निकलती धधकती चीख    


चीखते सवालों के जवाब दिए जा रहे हैं
और अधिक जोर से चीखते हुए
यह तय कर पाना बहुत मुश्किल है
कि कौन विजेता है चीखने की प्रतियोगिता में
रेफरी को भी स्थगित करना पड़ता है यह खेल
लगभग चीखते हुए

चीखने चिल्लाने के कई मंच सजे हैं
कई संस्थाएं खडी हो गईं हैं
जहाँ काबिल उस्ताद और गुणी पंडित
लोगों को इस कला का अभ्यास कराते नजर आते हैं
सबको कुशल बनाने के लक्ष्य में
चीख को सबसे पहले हाथ में लिया गया है शायद

वहाँ कोई चिल्ला रहा है तो कैसा अचरज
कि यहाँ की आवाज में भी नहीं सुनाई दे रहा कोई संगीत
बहुत स्वाभाविक है यह
कि कविता बहुत चीख रही है इन दिनों.

   

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-452018
मो. न.  09893944294




चूहे की तलाश में

कविता
चूहे की तलाश में
ब्रजेश कानूनगो  

तुम कहते हो
एक दोहे में निचोड़ कर रख दूँ आकाश
चार पंक्तियों के बाड़े में बिखरा दूँ सुख-दुःख

वह तुलसी का चौबारा था
जहाँ अर्थ से लदे शब्द दौड़ लगाते थे
मुझमें नहीं भक्त–सा धैर्य
न कोई राम मेरा

निर्भय नहीं मैं कबीर की तरह
खरी-खरी मेरे बस में नहीं कहना
मेरी वाणी सीप नहीं कोई
मत करो प्रवाल की उम्मीद   

तुम भी कहाँ रहे अब
इशारों में समझने वाले  
धार्मिक भी नहीं अब वैसे
कि बर्दाश्त कर सको दो टूक

एक चूहे की तलाश में पहाडी को खोदता रहता हूँ
मिट्टी के ढेर की तरह जमा हो जाती है कविता.

ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर 452018         

कड़क अकड़

कविता
कड़क अकड़   
ब्रजेश कानूनगो

किसी किसी पड़ोसी में 
होती है इतनी अकड़ कि
निकल जाता है चुपचाप पीठ के पीछे से
दूसरे में भी कड़कता इतनी कि  
पहुँच नहीं पाती उस तक निकट से गुजरती
रोज की परिचित गंध

अकड़ शब्द में कड़क की ध्वनि सुनाई पड़ती है कभी-कभी

जरूरी नहीं कि देह में ही दिखाई देती हो अकड़
चौधरी माट्साब का बहुत कड़क था स्वभाव
इतना कड़क कि नौ का पहाडा नहीं बोल पाने पर
नज़रों से ही गीली हो जाती थी निकर  
और गायब हो जाती थी बद्री पहलवान की सारी अकड़  
वे गुर्राते तो खड़खड़ाने लगते थे
पैंतीस मुलायम पिंजर

यों कड़क होना कोई बुरी बात भी नहीं है
किसी के कड़क हो जाने से
झुकी हुई रीढ़ को ताकत मिलती है
और तनकर आगे बढ़ने का साहस भी

कड़क धूप में पहाड़ बनाता
जंगल से आया गणपत जब सुस्ताता है  
तो पार्वती माँ की कड़क चाय
दूर कर देती है नसों की सारी अकड़  
दुनिया भर की कड़कता को
कन्धों पर ढोहने के लिए 
फिर से तैयार हो जाती है उसकी देह

कड़क-अकड़ का यह विचार अचानक  
यों ही नहीं चला आया है
पर्यटन करने मेरे भीतर
वो तो सुबह जब सोकर उठा
तो लगा जैसे दादी की कहानी की तरह 
किसी ऋषि के श्राप से
पीठ पाषाण में बदल गयी है 

इतना कड़क हो गया देह का पिछला हिस्सा
कि बड़ी मुश्किल से पेट के बल लिटाकर
मलहम लगाया पत्नी ने
गर्माहट की सामग्री से लदी नर्म हथेलियाँ
दौड़ती रही प्रभावित इलाके में बहुत देर तक
यह बड़े संतोष की बात रही
कि ठीक समय पर
ठीक से पहुँच गयी राहत .

सोचता हूँ
क्या होता होगा उनका
जिनके बगल में कोई रहता न हो   
और रात-बेरात अकड़ जाती होगी कमर
कैसे दूर होती होगी
अचानक आई उनकी अकड़

कितना भी कड़क क्यों न हो कोई
बहुत देर तक पकड़ कर नहीं रख सकता
अनचाही अकड़ को


ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर- 452018
मो.न. 09893944294