Sunday, February 28, 2016

एक टुकड़ा गाँव

कविता
एक टुकड़ा गाँव
ब्रजेश कानूनगो

ऊँची इमारतों और
नंबरों की पहचान लिए दौड़ती सडकों के निकट  
जमीन का छोटा-सा टुकड़ा है सामने
जैसे गोबर लीपी भींत पर माँ का कोई माँडना
मिट्टी की पगडंडी पर  
एक बैलगाडी खड़खड़ करती है रोज
   
रिंगरोड के बीचों बीच बने मंदिर में बजरंगबली के कान
जब गाड़ियों के शोर और मंजीरों, नगाड़ों की आवाज से बेहाल हो जाते हैं
बबूल के पेड़ पर कोयल बोलती है मेरे घर के सामने
ईश्वर को ऊँची आवाज में पुकारे जाने के थोड़ी देर बाद 
ओस की बूँदें चमकने लगतीं हैं कोंपलों पर
मधुमक्खियाँ शहद जमा करती हैं नीम की डाली पर
दस फुट लंबा एक पूर्वज भी दिख जाता है मौके-बेमौके
और अब आया है यहाँ एक खेतीहर परिवार दाड़की करने 
एक टुकड़ा गाँव आ बसा है जमीन के इस टुकड़े पर
 
सब मजे में हैं, राजी-खुशी बीत रहा है जीवन
  
घास-मिट्टी की नहीं बनी हैं किसान की टापरी
पर टीन की चद्दरों में भी महसूस की जा सकती है गाँव की गंध
चूल्हा जलता है तो टिक्कड़ सिकनें की भूली बिसरी खुशबू
अगरबत्ती के धुंए की तरह बिखरने लगती है हवा में   
बबूल की छाया में चारपाई पर चहकता है बचपन
तो मुस्कुराते हुए चले आते हैं पिता रंगीन गुब्बारे थामे

हल तो नहीं पर ट्रेक्टर चलता है जमीन के टुकड़े पर 
सफ़ेद बगुले चलते हैं पहियों के पीछे-पीछे 
साफ़ नहीं दीखता कि
वे बीजों को लपकते हैं या केंचुओं का करते हैं शिकार

दीवार सांझा करने वाले दुग्गल साहब नहीं जानते
कि कैसी रहती है मेरी माँ की तबीयत और क्या करता हूँ मैं
देहात से आए लोगों में जीवित है अभी-भी थोड़ा-सा गाँव
ताजी फसल से आए
हरे चने का उपहार लेकर आता है हमारा नया पड़ोसी
और जब दीखता नहीं कोई घर में
तो पूछ लेता है- सब ठीक तो है
कोई काम हो रात-बेरात
तो संकोच मत करना बताने में 

पढ़ता हूँ अखबार में जब विकास की कोई नई घोषणा
एक गाँव मेरे भीतर मिटने लगता है.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड,इंदौर-452018



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