Sunday, November 1, 2015

कड़क अकड़

कविता
कड़क अकड़   
ब्रजेश कानूनगो

किसी किसी पड़ोसी में 
होती है इतनी अकड़ कि
निकल जाता है चुपचाप पीठ के पीछे से
दूसरे में भी कड़कता इतनी कि  
पहुँच नहीं पाती उस तक निकट से गुजरती
रोज की परिचित गंध

अकड़ शब्द में कड़क की ध्वनि सुनाई पड़ती है कभी-कभी

जरूरी नहीं कि देह में ही दिखाई देती हो अकड़
चौधरी माट्साब का बहुत कड़क था स्वभाव
इतना कड़क कि नौ का पहाडा नहीं बोल पाने पर
नज़रों से ही गीली हो जाती थी निकर  
और गायब हो जाती थी बद्री पहलवान की सारी अकड़  
वे गुर्राते तो खड़खड़ाने लगते थे
पैंतीस मुलायम पिंजर

यों कड़क होना कोई बुरी बात भी नहीं है
किसी के कड़क हो जाने से
झुकी हुई रीढ़ को ताकत मिलती है
और तनकर आगे बढ़ने का साहस भी

कड़क धूप में पहाड़ बनाता
जंगल से आया गणपत जब सुस्ताता है  
तो पार्वती माँ की कड़क चाय
दूर कर देती है नसों की सारी अकड़  
दुनिया भर की कड़कता को
कन्धों पर ढोहने के लिए 
फिर से तैयार हो जाती है उसकी देह

कड़क-अकड़ का यह विचार अचानक  
यों ही नहीं चला आया है
पर्यटन करने मेरे भीतर
वो तो सुबह जब सोकर उठा
तो लगा जैसे दादी की कहानी की तरह 
किसी ऋषि के श्राप से
पीठ पाषाण में बदल गयी है 

इतना कड़क हो गया देह का पिछला हिस्सा
कि बड़ी मुश्किल से पेट के बल लिटाकर
मलहम लगाया पत्नी ने
गर्माहट की सामग्री से लदी नर्म हथेलियाँ
दौड़ती रही प्रभावित इलाके में बहुत देर तक
यह बड़े संतोष की बात रही
कि ठीक समय पर
ठीक से पहुँच गयी राहत .

सोचता हूँ
क्या होता होगा उनका
जिनके बगल में कोई रहता न हो   
और रात-बेरात अकड़ जाती होगी कमर
कैसे दूर होती होगी
अचानक आई उनकी अकड़

कितना भी कड़क क्यों न हो कोई
बहुत देर तक पकड़ कर नहीं रख सकता
अनचाही अकड़ को


ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर- 452018
मो.न. 09893944294  


 

 





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