Thursday, October 29, 2015

पत्थर की घट्‌टी

पत्थर की घट्‌टी


पत्थर के वृत्ताकार ये दो शिल्प
जो निकल आए हैं खुदाई के दौरान
कुछ और नहीं
घट्‌टी के दो पाट हैं।

समय की कई परतों से
ढ़की हुई थी यह घट्‌टी
जो निकल आई है, अभी अभी
छुपे हुए खजाने की तरह।

स्मृतियों का महीन आटा
दिखाई दे रहा है
इनके बीच से निकलता हुआ।

घर के एक कोने में
रखी होती थी कभी यह
पुरानी फिल्मों की हवेलियों मे जैसे
सजा होता है कोई पियानो।

घर आँगन के साथ होता था श्रृंगार इसका
बहन बांधती थी राखी
इसके  हत्ते पर
मिट्‌टी का दीपक जलाती थी माँ
इसके पाटों पर
लक्ष्मी पूजन के समय।


प्रभातफेरी  पर निकले सज्जनों के गान के साथ
शुरू होता था दादी का घट्‌टी घुमाना
लोरी की तरह फूट पड़ती थी गड़गड़ाहट
जो नींद के सुखद संसार में फिर से ले जाती थी
जागते हुए बच्चों को।


आज भी ताजा है
घट्‌टी में पिसे अनाज का स्वाद बिलकुल देसी
तब कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी
नहीं बेचा करती थी
देशी अनाज का विदेशी आटा
'जिसके आटे में दल
उसके  बेटे में बल' गाते हुए
कई सेर अनाज पीस डालती थी माँ
जोश में आकर।

पाउच, पैकैट और डिब्बाबंद के  इस समय में
पत्थर की घट्‌टी का इस तरह
धरती से निकल आना
के एल़ सहगल के किसी गीत की तरह
समृतियों के सभागार में
गूंज रहा है लगातार।



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