सुबह
उजाला होने के थोडा
पहले वे आते हैं
ये आते हैं एक साथ
और बिखर जाते हैं
चारों तरफ
वे एक ही परिवार के
होते हैं
न भी होते हों शायद
लेकिन दिखाई देते
हैं ऐसे
जैसे दौड रहा हो
उनमें एक ही खून
धुन्द और धूल के
पर्दे में
सुनाई पडती है
झाडुओं की आवाज
वे झाड देते हैं
हर कोने में छिपा
हुआ कचरा
फलों के
छिलके,सिगरेटों के पैकेट
जहरीली थैलियां,
चाट के दौने
शाम का अखबार बदल
जाता है ढेरियों में
बच नही पाती उनकी
झाडुओं से
महापुरुषों की
प्रतिमाओं के नीचे जमीं हुई धूल भी
गाते जाते हैं
वे न जाने कौन सा
राग
रात की घटनाओं के
निशान मिटाते हुए
उनके गुनगुनाने के
साथ
शुरू होता है
चिडियों का चहचहाना
वे
कल फिर आएँगे !
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