Thursday, October 29, 2015

राष्ट्रीय शोक

राष्ट्रीय शोक

धूल झाडकर पुराने अंकों की
कम्पोज करने लगते हैं अखबार नए अक्षर
ग्रंथालय से निकल आती हैं आत्मकथाएँ
बडी दौड-भाग करते हैं मंत्रियों के सचिव
सार्थक शब्दों की तलाश में

वृत्तचित्रों की फिल्मों पर
चलने लगतीं हैं सम्पादक की कैंची
सींचने लगता है माली
शाही बगीचे के गुलाबों को कुछ ज्यादा
सब कुछ चलता रहता है धीरे-धीरे
शय्या पर पडे मरणासन्न
नायक की धडकनों के साथ-साथ

न जाने कब डोरियों को ढीला करना होगा
और झुका दिए जाएँगे राष्ट्रीय ध्वज आधे
अनुमानित अवकाश और रविवार का
संयोग बैठाने लगते हैं कर्मचारी

लिपिस्टिक और चेहरे की चमक को पोंछकर
काली चादर की ओट से सुनाती है जब उद्घोषिका
नायक के गुजर जाने का समाचार
गरिमापूर्ण अंतिम बिदाई के लिए तब तक
पूरी तैयारी कर लेता है कृतज्ञ राष्ट्र

रोने लगती है सारंगी
जहाँ बजते हैं रेडियो अभी भी
बाजार में बैठे बत्तीस चैनलों पर
चलता रहता है मुजरा


जीवित है अभी कुछ परम्पराएँ थोडी बहुत
इसलिए दिखाई देते हैं दूरदर्शन पर
कुमार गन्धर्व के रूप में कबीर
सुब्बालक्ष्मी और लता मंगेशकर
सुनाती हैं गाँधी के प्रिय भजन
कुछ दिनों तक लगातार

और एक दिन अकस्मात फिर से
सबके सामने कोई सुन्दरी अपनी देह पर
मलने लगती है सौम्य साबुन
अक्खड किसान की डाइनिंग टेबल पर
सोने जैसे गेहूँ से बनी रोटियाँ
परोसती है दमकती गृहिणी
लहराने लगता है मिनी स्कर्ट
चमकने लगती हैं रोशनी में नग्न पिंडलियाँ

राष्ट्रीय शोक की समाप्ति पर
बजाया नहीं जाता कोई नगाडा
जान जाते हैं समझदार लोग
बिदा हो चुके हैं दु:ख के बादल
खुला पडा है चमकदार आकाश
पतंगों को उडाने के लिए। 






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