कविता
स्वाद
खट्टे-कसैले की मौजूदगी के बावजूद
बहुत बड़ा हिस्सा मीठा ही था उन दिनों
सलीम और मैं दौड़ते चले जाते थे
घंटी बजते ही दत्त मंदिर की ओर
प्रवचन के बाद बंटने वाला
‘गोपाल काला’ दही से बनता था
दोस्ती का वह स्वाद बना हुआ है अब तक
कैसे भुलाया जा सकता है
खालिस दूध से बना शरबत
कमरू आपा के प्यार जैसा मधुर
इस्माइल चाचा की रेवड़ियाँ और रोट
माँ के बनाए लड्डुओं की तरह
घुलते जाते थे मुंह में
नहर बन गई गली में
मछलियों की तरह बहकर आते थे भुट्टे और ककड़ियाँ
किशोर, बुग्गा, भय्यू और सलीम सब मिल करते थे
शिकार
गर्म पकौड़ों की तरह लगता था उनका स्वाद
बरसात में भीगते हुए
स्वाद तो सेव-परमल का भी कुछ कम नहीं होता था
जो होली की रात चंदे की रकम से खाते थे हम बच्चे
पिता की दूकान से चुराकर लाता था अब्दुल
प्याज और हरी मिर्च
चखा तो नहीं पर देखा जरूर है विष का असर
खँडहर की खुदाई करते हुए मंगल का अमंगल देखा है
कॉलेज के दिनों में साइनाइड चख लेने का
दावा किया था एक प्रोफ़ेसर ने तो हँसे थे सब लोग
जीवित बचे तो पागल कहा जाने लगा उन्हें
झूठा नहीं था रसायन विज्ञानी
हो सकता है अधिक विषैले की उपस्थिति ने
बेअसर कर दिया हो जहर का असर
या भीतर के किसी विष निरोधक तत्व ने
किया हो जमकर मुकाबला
विष का असर देखा जा सकता है अब भी आसानी से
रंग नहीं अब स्वाद से एकाकार होता है गिरगिट
फलों, सब्जियों और अनाज के स्वाद में ऐसे घुलता
है
कि पहचानना मुश्किल है विष का स्वाद
मनुष्यता के आँगन में घुसे आ रहे हैं विषैले जंतु
घुल रहा है साइनाइड आबोहवा में धीरे-धीरे
नदियाँ, भाषाएँ दूषित होने लगी हैं
पागल प्रोफ़ेसर कहाँ हो तुम
बताओ यह किस खतरनाक रसायन का विस्तार है
चखो इसे ठीक से
घोषित करो इसका सही-सही स्वाद
विष के खिलाफ रणनीति बनाने में
स्वाद का विश्लेषण बहुत जरूरी हो गया है अब.
ब्रजेश कानूनगो
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